जातिवाद का बोलबाला
राजस्थान के विभिन्न विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के छात्रसंघ चुनाव परिणामों का सामाजिक एवं राजनीतिक विश्लेषण किया जाए, तो हालात चिंताजनक हंै। चुनावी नतीजों से साफ है कि एक तो छात्र राजनीति पूरी तरह आरक्षित वर्ग के छात्र-छात्राओं तक सिमटती जा रही है, दूसरी बात अनारक्षित वर्ग के विद्यार्थी पूरी तरह हाशिए पर आ गए हैं या आने के कगार पर हैं।
यह स्थिति इसलिए पैदा नहीं हो रही है कि आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों में अचानक राजनीतिक चेतना आ गई है? आरक्षण के राजनीतिकरण के चलते इसके दायरे में ऎसी कई जातियां शामिल कर ली गई, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप में सामान्य वर्ग के समकक्ष थीं। प्रवेश में आरक्षण के रोस्टर के चलते सामान्य वर्ग की सीटों पर भी आरक्षित वर्ग की प्रभावशाली जातियों के विद्यार्थी भर गए। अनारक्षित वर्ग के गिने-चुने विद्यार्थियों का ही सरकारी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय में दाखिला हो पा रहा है। आरक्षण की राजनीति में जातिवाद के तड़के ने उच्च शिक्षा के इन केन्द्रों में प्रमुख राजनीतिक दलों के समर्थित छात्र संगठनों की राजनीति में भी संगठन शक्ति को गौण कर दिया।
अब भारतीय विद्यार्थी परिषद हो या एनएसयूआई या फिर एसएफआई, सभी को अपने खाते में जीत दर्ज करवाने के लिए उसी जाति के प्रत्याशी चाहिए, जिस जाति के छात्र मतदाता ज्यादा हैं। विश्वविद्यालय चूंकि लोकतंत्र की पाठशाला माने जाते हैं। यदि इसी पाठशाला में चुनाव जीतने के लिए जातिवाद की तिकड़म आजमाई जाएगी या सिखलाई जाएगी, तो यहां से निकलने वाले युवाओं से लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप आचरण की उम्मीद कैसे की जा सकती है? हालात यही रहे और इसी तरह जातिवाद को उकसाते और भुनाते रहे, तो उच्च शिक्षा के ये केन्द्र जातिवादी राजनीति के अखाड़े बनकर रह जाएंगे।
आरक्षण की व्यवस्था के चलते सरकारी विश्वविद्यालय और महाविद्यालय में शिक्षा पाने से अनारक्षित वर्ग के विद्यार्थी वंचित रह रहे हैं, तो क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए वे क्या करेंगे या कहां जाएंगे? राजनीतिक लाभ-हानि से इतर सभी के हित को केन्द्र में रखकर नहीं सोचा जाएगा, तो समाज में नई तरह की विषमताएं पैदा होंगी, जिससे हमारी सामाजिक समरसता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। आरक्षण व्यवस्था पर पुनर्विचार संभव नहीं हो, तो कम से कम इससे पैदा होने वाली समस्याओं और विकृतियों को रोकने के समुचित उपाय तो किए ही जा सकते हैं।
चूंकि राजनीतिक दलों की तरह अब छात्रसंघ चुनाव में प्रत्याशी के चयन से लेकर चुने जाने तक की प्रक्रिया में जातिगत मतों के ध्रुवीकरण, समझौते और समझाइश की कवायद साफतौर पर दिखलाई पड़ रही है, इसलिए अब छात्रसंघ के विभिन्न कार्यक्रमों में भी नेता जातिवाद को उकसाते-भुनाते दिखे को कोई अचरज की बात नहीं। इसी का विकृत रूप हमारी चुनावी राजनीति में दिखता है, तो यह समझने की कोशिश क्यों नहीं करते कि हम अपने ही बोए हुए कांटों का दर्द झेलते हैं। छात्रसंघ के रूप में परिसर में जातिवादी राजनीति अंकुरित होती है, जिसे राजनीतिक दल चुनावी राजनीति में सोशल इंजीनियरिंग, जाति आधारित भाईचारा सम्मेलन और तुष्टीकरण से वटवृक्ष बना देते हैं। इस स्थिति में हम जातिवादी राजनीति को केवल कोस सकते हैं, लेकिन व्यवहार में इसे झेलने, सहने और आगे बढ़ाने को विवश दिखते हैं।
छात्रसंघ से लेकर संसद तक पोषित हो रही धर्म-जाति की राजनीति से निजात पाना बेहद मुश्किल है, लेकिन असंभव कतई नहीं। जातिवादी राजनीति सभी दलों और नेताओं को इसलिए भी सुहाती है, क्योंकि इसमें मुद्दे गौण हो जाते हैं और जातिगत अहंकार हावी हो जाता है। जब बिना मुद्दे ही जातिवाद के आधार पर चुनाव जीता जा सकता है, तो फिर कोई अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए मतदाताओं के पास रचनात्मक कार्यक्रम लेकर क्यों जाएगा? चुनाव लड़ने या जीतने का आधार जब जातिवाद रह जाएगा, तो फिर मतदाताओं को लुभाने के लिए किसी ठोस कार्यक्रम की जरूरत क्या? जब प्रत्याशी की कोई नीति नहीं होगी और उसके पास अपना कोई कार्यक्रम नहीं होगा, तो वह चुनाव जीतकर भी व्यवस्था में भला क्या सुधार कर पाएगा और सुधार करेगा भी क्यों? जातिवादी राजनीति का बोलबाला कार्यक्रम, नीति और योजनाओं में भी साफ दिखाई देता है।
इसीलिए छात्रसंघ भी परिसर में शैक्षिक माहौल नहीं लौटा पाता है और हमारे मतों से चुने जाने वाले हमारे नीति-नियंता भी खुशहाल और समृद्ध लोकतांत्रिक समाज का निर्माण कर पाने में विफल रहते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि केवल चुनाव करवा लेना ही काफी नहीं है। हमें यह भी देखना होगा कि इन चुनावों से हमें हासिल क्या हो रहा है? क्या इन चुनावों से हम ऎसा भावी नेतृत्व तैयार कर पाएंगे, जो चुनौतियों का सामना करके देश और समाज के हितों की रक्षा कर पाने में सक्षम है? छात्रसंघ अध्यक्ष हो, विधायक-सांसद या फिर पंच-सरपंच, हम जातिगत भावना के वशीभूत होकर मतदान करेंगे, तब हमारे जातिवादी अहंकार की तुष्टि तो संभव है, लेकिन हम सक्षम नेतृत्व का चयन कदापि नहीं कर पाएंगे।
सक्षम नेतृत्व के चयन में हमारा मत तभी निर्णायक हो सकता है, जब वोट देते समय हमारी समस्याओं को सुलझाने की उसकी समझ और सामथ्र्य को देखें। यह तभी संभव है, तब हमारे सोचने का दायरा संकीर्ण न हो और हम सभी की भलाई चाहें। मुद्दे आधारित राजनीति का हाशिए पर जाना लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है। इसे समझने और लोकशाही को मजबूत बनाने के लिए चेतने और चेताने की जरूरत है।
डॉ. हनुमान गालवा
http://dailynewsnetwork.epapr.in/152103/Daily-news/26-08-2013#page/7/1
डेली न्यूज, जयपुर में 26 अगस्त, 2013 को प्रकाशित आलेख