Tuesday, 10 December 2013

डॉ. हनुमान गालवा - जबरिया डुगडुगी बजाने में मजबूरी का नाच


http://newstoday.epapr.in/196480/Newstoday-Jaipur/10-12-2013#page/5/1
जबरिया डुगडुगी बजाने में मजबूरी का नाच
 - डॉ. हनुमान गालवा
पेट्रोल के बाद अब सरकार डीजल को भी अपने नियंत्रण से मुक्त करने जा रही है। आखिर सब्सिडी की डुगडुगी से सरकार कब तक काम चलाती? अब पेट्रोल की तरह डीजल भी आजाद होकर हवा में उछल-कूद का आनंद ले सकेगा। अपनी डुगडुगी बजा सकेगा। अपनी डुगडुगी पर महंगाई को भी नचा सकेगा? जब महंगाई भी अपने हिसाब से नाच रही है, तो फिर पेट्रोल-डीजल को अपनी खुशी के इजहार से रोका जाना क्या समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है? आतंक, अलगाव और नक्सली हिंसा के दानव भी बिना किसी नियंत्रण के तांडव कर रहे हैं। आखिर सरकार किस-किस को नियंत्रण में रखे? भ्रष्टाचार की पूंछ तक पकड़ में नहीं आ रही है, तो समझ लेना चाहिए कि सरकार की पकड़ ढीली हो चुकी है। योगी बाबा और सरकार के बीच पकड़म-पकड़ाई के खेेल में सरकार मुकदमों का शतक लगाने की ओर अग्रसर है, लेकिन बाबा आउट होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। बयानबाजी की कैंची से ही पकड़ पाती तो सरकार दाऊद इब्राहिम को कभी का पकड़ चुकी होती। सरकार भी आखिर क्या करे? सरकार को सरकार बने रहने के लिए भी गठबंधन को नियंत्रण में रख पाना कोई हंसी का खेल नहीं है। यह तो सत्ता के फेविकोल का मजबूत जोड़ है, वरना घटक दलों की दरारों में सरकार कहीं दूरबीन से भी नहीं दिखती। सरकार अपने को बचाने के लिए केवल डुगडुगी बजा रही है और खुद ही नाच-नाच कर घटक दलों को रिझा रही है। डुगडुगी बंद हुई नहीं कि सरकार के थिरकते पांवों ने जवाब दिया नहीं। सरकार ने नाचना बंद कर दिया तो घटक दलों की ताली यानी समर्थन भी बंद। जब सरकार खुद नाचने को विवश है तो फिर नाचने और नचाने को अपनी नियति मान लेने में ही समझादारी है। जो नचा सकता है, वह नाचेगा और जो नाच सकता है, वही अपने आपको बचा सकता है। बस, डुगडुगी की आवाज सुनते रहिए, समझते रहिए और उस पर अमल करते रहिए। नाचना और नचाना ही असल में लोकतंत्र है। चुनाव में उम्मीदवार नाचते हैं और मतदाता देखते हैं। मतदाताओं को जिसके ठुमके ज्यादा अच्छे लगेंगे, वोट भी वही ज्यादा ले जाएगा। चुनाव परिणाम के बाद नाचने वाला नचाने लगता है और नचाने वाला मतदाता नाचने। लोकतंत्र के नाच में किरदार और परिस्थिति बदल जाती है, लेकिन नाच का स्वरूप नहीं बदलता है। डुगडुगी बजाने वाला भी बदल जाता है, लेकिन नाच चलता रहता है। इसी चलते रहने में लोकतंत्र गतिमान है। और लोकतंत्र को बचाने और चलाने के लिए डुगडुगी बजाना जरूरी है।
न्यूज टुडे, जयपुर में 10 दिसंबर, 2013 को प्रकाशित व्यंग्य

Monday, 2 December 2013

गरीब का स्पर्श - डॉ. हनुमान गालवा


http://newstoday.epapr.in/192881/Newstoday-Jaipur/02-12-2013#page/5/1
गरीब का स्पर्श

- डॉ. हनुमान गालवा
पारस का स्पर्श पाकर लोहा भी सोना बन जाता है। यह हम पीढिय़ों से सुनते आए हैं। इस पर बिना देखे ही यकीन करते आए हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम आदमी जिसे भी छूता है, वह महंगी हो जाती है यानी आम आदमी से दूर हो जाती है। अमेरिका तक इस धारणा को प्रमाणित कर चुका है। अमेरिका से बात चली कि भारतीयों की खुराक बढ़ जाने से दुनिया में महंगाई बढ़ी है। हमारे विशेषज्ञों ने इस अमेरिकी निष्कर्ष में अपनी राय जोड़ दी कि गांव वाले ज्यादा खाते हैं। विशेषज्ञों की इस राय से सरकार भी इनकार नहीं कर सकी। तुरंत अपनी पीठ थपथपा दी कि नरेगा से क्रय शक्ति बढ़ी है तो लोग खाएंगे ही। सरकार ने लोगों को जीमने का कानूनन अधिकार भी दे दिया, ताकि सरकार की तरह लोग भी खूब खा सकें। युवराज ने अपनी पार्टी के नारे को भी अपडेट कर दिया। बात दो रोटी से चार पर पहुंचते ही युवराज को डकार आ गई और कह दिया भरपेट रोटी खाओ और उनकी पार्टी को जिताओ। अब कहा जाने लगा है कि सब्जियों के भाव इसलिए बढ़े, क्योंकि गरीब दो-दो सब्जियां खाने लगे हैं। भला यह भी कोई बात हुई? जीने के अधिकार में रोजगार की तरह रोटी पाने और खाने के अधिकार में सब्जियां खाने का अधिकार भी निहित है। सरकार चाहे तो इस बारे में विधि विशेषज्ञों की राय ले सकती है या फिर कोई आयोग या समिति गठित कर यह सुनिश्चित कर सकती है। जरूरत पड़े तो कानून भी बनाया जा सकता है, क्योंकि आजकल हर समस्या के समाधान मेें कानून बनाकर ठंडे बस्ते में डालने का टोटका कारगर साबित हो रहा है। इस रोटी के अधिकार का रेसपोंस ठीक रहा, तो शायद सरकार अगले चुनाव के बाद नई सरकार रोटी के साथ सब्जी खाने का अधिकार भी दे दे। आम आदमी रोटी के हाथ लगता है, तो रोटी महंगी हो जाती है। सब्जी की ओर देखता है कि उसके भाव आसमान छूने लगते हैं। प्याज भी आखिर कब तक गरीब बना रहता? प्याज ने भी गरीबों से दूरी बढ़ाकर अपने आपको विशिष्ट बना लिया है। गाड़ी की सोचता है तो पेट्रोल-डीजल महंगा हो जाता है। सोना चाहता है तो 'सोनाÓ महंगा हो जाता है। बच्चों को स्कूल भेजने की सोचने से ही पढ़ाई महंगी हो जाती है। और तो और जिसे वह चुनकर भेजता है, वह भी जीतने के बाद आम आदमी से दूर हो जाता है। इसमें उसका कोई दोष नहीं है। यह तो आम आदमी के ईवीएम में उसके बटन पर ज्यादा स्पर्श के अभिशाप का नतीजा है। इस अभिशाप से दोषमुक्ति का कोई उपाय ढूंढ़ा जाना चाहिए। एक तो गाइडलाइन जारी की जा सकती है कि आम आदमी किसे स्पर्श करे और किसे नहीं। दूसरा, आम आदमी से शपथपत्र लिए जाएं कि वे गाइडलाइन की पालना करेंगे।

न्यूज टुडे जयपुर के 2/12/2013 के संस्करण में प्रकाशित व्यंग्य

Sunday, 17 November 2013

मुखिया की पीड़ा, सहायक का रोना - डॉ. हनुमान गालवा

http://newstoday.epapr.in/185784/Newstoday-Jaipur/16-11-2013#page/5/1
मुखिया की पीड़ा, सहायक का रोना
- डॉ. हनुमान गालवा
हमारे प्रधानमंत्रीजी को शिकायत है कि पुलिस तथा जांच एजेंसी प्रशासनिक तथा नीतिगत मामलों में बिना सबूत के ही दखल दे रही है। पुलिस और जांच एजेंसी कांग्रेस के अनुगामी संगठन होते, तो इनको अपनी हद में रहने के लिए आलाकमान से भी धमकवाया जा सकता था। ये कोई सरकारी अध्यादेश भी नहीं है, जिसे युवराज से फड़वाया जा सके। चुनाव लडऩे वालों के तो टिकट कटवाए जा सकते हैं, लेकिन इनको दखल से रोकने का कोई उपाय नहीं दिख रहा है। कोई उपाय होता तो प्रधानमंत्रीजी शिकायत ही क्यों करते? शिकायत तो हमारे माननीय गृहमंत्री को भी है कि एक आतंककारी संगठन उनका कहना नहीं मानता है। उन्होंने साफ कहा कि यदि आतंकवादी संगठन उनके निर्देशन में काम करता तो देश में दंगे ही दंगे करवाते। उनका कहा उनका ही विभाग नहीं सुनता है तो फिर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि कोई आतंककारी संगठन उनके निर्देश या आदेश मानेगा? गृहमंत्री की तर्ज पर माननीय प्रधानमंत्री भी देशवासियों को आश्वस्त कर सकते हैं कि यदि पुलिस तथा जांच एजेंसी उनके प्रशासनिक और नीतिगत मामले में दखल देना बंद कर दे, तो वे हालात बदल सकते हैं। प्रधानमंत्रीजी की पीड़ा समझ में आती है। वे काम करना चाह रहे हैं, लेकिन उनको काम करने नहीं दिया जा रहा है। कभी वे राजनीति में दाग बचाने के लिए अध्यादेश लाते हैं, तो युवराज उनका अध्यादेश फाड़ देता है। कभी वे महंगाई रोकने के बैठक करते हैं, तो घटक दलों के महारथी बैठक में झगडऩे लगते हैं। प्रधानमंत्रीजी की पीड़ा के निवारण के लिए भी कड़ा कानून बनवाया जा सकता है कि कोई उनको कमजोर नहीं कहेगा, कोई उनकी निंदा नहीं करेगा, कोई उनका कहना मानने से इनकार नहीं करेगा। जो ऐसा करेगा, उसे राष्ट्र विरोधी कृत्य मानते हुए कार्रवाई की जाएगी। दिक्कत केवल यह है कि प्रधानमंत्रीजी की शिकायत दूर की जाए तो केन्द्रीय गृहमंत्री के मन की मुराद की अनदेखी कैसे की जा सकती है? गृहमंत्री को नाराज करके प्रधानमंत्रीजी को खुश कैसे किया जा सकता है। आखिर वे भी देश के पहले दलित गृहमंत्री हैं। ऐसा रास्ता निकाला जाए, जिससे प्रधानमंत्रीजी की शिकायत भी दूर हो जाए और गृहमंत्री को भी कोई शिकवा नहीं रहे कि उनका मंत्रालय भी उनकी बात नहीं मानता है, आतंकवादी संगठन उनकी सुनते नहीं हंै और अब शिकायत निवारण में भी उनकी उपेक्षा। कुल मिलाकर एक ही रास्ता बचता है कि निर्णय आलाकमान पर छोड़ दिया जाए कि किसकी बात में दम है। आलाकमान जो तय करेगा, वह सभी को मंजूर होगा, अन्यथा आलाकमान दम निकालने में समर्थ हैं।

न्यूज टुडे जयपुर में 16 नवंबर, 2013 को प्रकाशित व्यंग्य

Monday, 28 October 2013

प्याज का करिश्मा - डॉ. हनुमान गालवा


http://newstoday.epapr.in/178083/Newstoday-Jaipur/28-10-2013#page/5/1

प्याज का करिश्मा
 - डॉ. हनुमान गालवा
हमारा देश वाकई करिश्माई है। रोज नए-नए करिश्मे और चमत्कार। समोसे में आलू है, लेकिन संसद से लालू गायब हो चुके हैं। घोटाले की गेंद से रशीद मसूद भाई भी क्लीन बॉल्ड हो गए हैं तो तय है कि अब राजनीति के पिच पर दागी नहीं खेल पाएंगे। यह भी किसी सपने से कम नहीं है कि सजा होते ही सत्ता का स्विच स्वत: ही ऑफ हो जाएगा। अब तो राजनीति दलों का टिकिट नेटवर्क भी दागियों के लाइन कनेक्ट हो जाने पर भी 'नोट रिचेबलÓ हो जाएगा। खैर, राजनीति में तो करिश्मे, चत्मकार होते रहते हैं। बाबा सोने के खजाने का चमत्कार दिखा रहे हैं। सरकार आम आदमी का जाप छोड़कर खजाना...खजाना जप रही है। जब देश में चहुंओर चमत्कार हो रहा है तो फिर किसान के खेत का प्याज भी खामोश क्यों बैठा रहे? आखिर प्याज ने अपनी उछल-कूद से कई बार सरकार बदलने और बनाने का करिश्मा कर दिखाया है, तो उसके चमत्कार को कौन नहीं नमस्कार करेगा? किसान के खेत का एक रुपए किलो का प्याज दिल्ली में जाकर एक सौ रुपए का हो गया। दिल्ली जाकर नेताओं के भाव बढ़ जाते हैं, तो फिर प्याज अपने नखरे क्यों नहीं दिखलाएगा? प्याज के करिश्मे को समझने के लिए अतीत की परतें उधेडऩी पड़ेंगी। मिस्टर क्लीन कह करते थे कि दिल्ली से एक रुपया भेजते हैं, जो गांव के गरीब तक पहुंचते-पहुंचते पंद्रह पैसे रह जाता है। एक रुपए के पंद्रह पैसे में सिमट जाने की गुत्थी को भी प्याज के करिश्मे से ही सुलझाया जा सकता है। किसान के हाथ से प्याज निकलता है, तब उसे कोई खास भाव नहीं देता है। मंडी में थोक एवं खुदरा विक्रेताओं के चमत्कारिक स्पर्श  से प्याज आम से खास हो जाता है। भंडार में रहते-रहते प्याज को चमत्कारिक बाबा की तरह अपनी शक्ति का अहसास होता है। कुछ दिन विश्राम के बाद जब प्याज ठेले पर विराजमान होकर गली-कूचे में भ्रमण करता है, तब उसे अपनी अहमियत का अंदाज हो जाता है। यहीं आकर सरकार को उसके छिलके भी डराने लगते हैं, लेकिन सत्ता में आने के सपने पाले प्रतिपक्ष को उसका तीखापन भी मीठेपन का अहसास देता है। प्याज सरकार के लिए बम है, तो सत्ताभिलाषी विपक्षी नेताओं के लिए सपने साकार करने वाला बाबा है। प्याज का सपना किसी को राजयोग दिखाता है, तो किसी को सत्तावियोग। यह प्याज का ही चमत्कार है कि एक ही सपने में संयोग और वियोग दोनों तरह की अनुभूति का अहसास हो जाता है। प्याज शनि की तरह कुंडली में बैठकर किसी को राजा भी बना सकता है और राजा को रंक भी बना सकता है।
न्यूज टुडे जयपुर  में 28 अक्टूबर, 2013 को प्रकाशित व्यंग्य

Monday, 21 October 2013

बाबा का सपना और सरकार - डॉ. हनुमान गालवा


http://newstoday.epapr.in/c/1806608

बाबा का सपना और सरकार
- डॉ. हनुमान गालवा
किसी सपने पर कार्रवाई करने वाली हमारी सरकार दुनिया में पहली सरकार है। एक बाबा ने सपने में सोने का खजाना देखा। सरकार तुरंत उसकी खोज में खुदाई करने लगी। मीडिया खुदाई का लाइव कवरेज पूरे देश को दिखा रहा है। देखने को गांधी बाबा ने भी देश में ग्राम स्वराज्य का सपना देखा था। ग्राम स्वराज्य को खोजने का कोई सरकारी प्रयास नहीं हुआ। अब तो सरकार बाबा-बाबा में भी भेद करने लगी है। दिल्ली में आकर विदेशी बैंक में छिपे हमारे खजाने का सपना दिखाने वाले बाबा का लाठी से सत्कार करती है। एक बाबा ने सपने में देखा कि एक बाला को प्रेतात्मा सता रही है। बाबा अपने सपने के बारे में बता देते तो शायद कोई नागर, कांडा या मदेरणा भी कुछ मदद करते। बाबा तो आखिर बाबा ठहरे। उनको किसका भय। खुद ही भूत उतरने लगे। बाबा ने सरकार के दूतों पर भरोसा नहीं किया। अब पछताने से क्या होता है? सपने में सोने का खजाना देखने वाले बाबा ने सत्ता के दूतों पर भरोसा किया तो दूतों ने भी उनके सपने पर विश्वास किया। अब सरकार खजाने की खोज में खुदाई में लगी है। इस खुदाई में हम घोटालों के गम भूल चुके हैं। दंगों के जख्म भर गए हैं। भगदड़ का भूत हमें कहीं नहीं दिख रहा है। अब पूरा देश खजाने के सपने में जुटा है। जैसे सोना मिलेगा तो सभी संकटों का निवारण हो जाएगा। सरकार के संकट तो टल रहे हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे हमारे कष्ट भी कुछ तो कम होंगे। वैसे तो सपने में भी सोना मिलना या खोना अशुभ माना जाता है। चूंकि सपना सरकार ने तो देखा नहीं। इसलिए यह अशुभ होगा तो सपना देखने वाले बाबा के लिए होगा। सरकार के लिए तो शुभ ही शुभ है। मोह-माया छोड़ चुके बाबाओं को सपने में सोना दिख रहा है। जनता के सेवकों को बाबा के सपने का खजाना दिख रहा है। खजाना मिल गया तो चमत्कारिक बाबा की साधना का जादू चल निकलेगा। खजाना नहीं भी मिला तब भी भला नुकसान क्या? चर्चा की जुगाली से कुछ दिन तो सुकून मिलेगा। सपने में भी संतोष मिल रहा है तो सपने को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए। हमारे देश को कभी सपेरों का देश कहा जाता था। अब हम उनको बता सकते हैं कि भारत सपेरों नहीं सपनों का देश है, जहां सभी को सपने देखने का अधिकार है।
न्यूज टुडे जयपुर में 21 अक्टूबर, 2013 को प्रकाशित व्यंग्य

Wednesday, 25 September 2013

सत्ता और रोटी - डॉ. हनुमान गालवा

सत्ता और रोटी
- डॉ. हनुमान गालवा

वामपंथी मानते हैं कि सत्ता बंदूक की नाली से निकलती है। हमारी यूपीए
सरकार ने इस अवधारणा को झुठला दिया। सरकार इस धारणा को पुष्ट करने में
जुटी है कि सत्ता पेट से निकलती है। गरीब के पेट में दो-चार रोटी डालो।
सब्सिडी की लाठी से उसे हिलाओ तो उससे मतों की बारिश होगी। इस बारिश से
राज की फसल उगाओ और घोटालों की उपज काटो। राज के लिए बंदूक उठाने की
जरूरत नहीं। गरीब के पेट से सत्ता और सरकार के पेट से घोटाले और
गड़बडिय़ां पैदा होती हैं। सत्ता का पेड़ उगाने की हमारी अहिंसक तकनीक
दुनिया को नई दिशा दे सकती है। मनरेगा के तहत गड्ढ़े खुदवाओ। खाद्य
सुरक्षा अधिनियम का खाद डालो। फिर उसमें घोषणा के बीज डालो। उस पर
सब्सिडी का पानी छिडक़ो। वादों के आकर्षण से अंकुर फूट आएंगे।
आरोप-प्रत्यारोप के औजार से उसकी निराई-गुड़ाई कर दीजिए। जाति-धर्म पोषित
पौधा पेड़ बनते देर नहीं लगेगी। पेड़ पर लगे फूल (वोट) झोली में समेट
लीजिए और पूरे पांच साल खराटे भरते रहिए। इस पेड़ पर लगा फल (सत्ता) को
घोटाले और गड़बडिय़ों के आचार से ही पचाया जा सकता है। जब घोटाले और
गड़बडिय़ों के गुब्बार से निजात दिलाने में आरक्षण का चूर्ण मददगार साबित
हो सकता है। हमारी सरकार को सत्ता का पेड़ उगाने और उस पर चढ़े रहने के
फामूर्ले का तुरंत पेटेंट करवा लेना चाहिए, ताकि हमारी अपनी इस थ्योरी को
कोई अपना नहीं बता सके। अंग्रेज तो फूट डालो और राज करो नीति से देश में
कई साल जमे रहे। अब हमारी सरकार बांटो और खाओ नीति से सत्ता में बने रहने
के जुगाड़ कीर्तिमान रच रही है। जिन देशों में सत्ता के लिए संघर्ष चल
रहा है, हम उनको इस फार्मूले से संघर्ष से मुक्ति दिला सकते हैं। जंग में
बर्बाद होने की मूर्खता कर रहा अमेरिका भी हमारी थ्योरी को समझकर समझदार
बन सकता है। दुनिया चाहे तो हमारी थ्योरी का परीक्षण भी करवा सकती है।
न्यूज टूडे, जयपुर में 25 सिंतबर, 2013 को प्रकाशित व्यंग्य

http://newstoday.epapr.in/164316/Newstoday-Jaipur/25-09-2013#page/5/2

Wednesday, 11 September 2013

अंतरिक्ष पर अतिक्रमण - डॉ. हनुमान गालवा

http://newstoday.epapr.in/158539/Newstoday-Jaipur/11-09-2013#page/5/1 

अंतरिक्ष पर अतिक्रमण
- डॉ. हनुमान गालवा
मंगल ग्रह पर कॉलोनी कट रही है। बुकिंग शुरू हो चुकी है। दुनियाभर से एक लाख से ज्यादा आवेदन आ चुके हैं। आवेदनों की लॉटरी से भाग्योदय की आस लगाए भारतीय भला पीछे क्यों रहेंगे। आठ हजार से ज्यादा भारतीय भी मंगल ग्रह पर बसने की दौड़ में शामिल हैं। चांद पर कॉलोनी कटी थी। तब भी धरती पर भूखंड नहीं खरीद पाने वाले कई महापुरुषों ने चांद के टुकड़े के तोहफे से धर्मपत्नी का दिल जीत लिया था। इनमें से कई महिलाएं रोज चांद को निहारती है। अपने पति के दिए उपहार को देखती है। कयास लगाती है कि उसका भूखंड कहां होगा? हमने भी अपने मित्र से परामर्श लिया कि अपन भी धरती पर भूखंड का श्रीखंड नहीं पा सके तो क्यों न मंगल पर मंगल का सोचा जाए। मित्र को सलाह जची। बोले बात ठीक है। रही बात रहने की तो यहां प्लॉट खरीदकर कौनसे रह लेंगे? यहां खरीदेंगे तो प्लॉट रोज दिखेगा। बसने की सोचेंगे तो भूमाफिया से पंगा लेना पड़ेगा। मुकदमाबाजी होगी तो रही-सही पंूजी भी ठिकाने लग जाएगी। मंगल पर प्लॉट के लिए बुकिंग करवा लेते हैं। न प्लॉट दिखेगा और न ही मकान बनवाने की नौबत आएगी। प्लॉट देखने जाना चाहेंगे भी तब भी केवल कल्पना की उड़ान ही भरनी पड़ेगी। भूखंड का एहसास ही सुकून देता रहेगा। चांद तो फिर भी पहचान में आ जाता है। चांद रोज दिखता है तो वहां खरीदा गया प्लॉट देखे बिना रहा नहीं जाता है। देखेंगे तो याद बसने की इच्छा भी बढ़ेगी। खैर, मंगल पर मंगल की तैयार चल रही है तो हम भी पीछे क्यों रहे। पहले प्लॉट खरीदा जाए, फिर बस न सकें तो प्रोपर्टी डीलर का काम भी चल निकलेगा। कोई यह भी नहीं कह सकता कि बिना जमीन के ही प्रोपर्टी डीलर बन बैठे। रही बात मौक पर कब्जा देने की तो कह सकते हैं कि मंगल पर जाओ और देख आओ। कोई अपने प्लॉट पर मकान बनवाने चाहे तो हम बिना ईंट-पत्थर के भी मंगल पर मकान बनवाकर दे सकते हैं। कल्पना के कोई पैसे थोड़े ही लगते हैं, लेकिन कल्पना से पैसा कमाया जा सकता है।
न्यूज टुडे, जयपुर में 11 सिंतबर, 2013 को प्रकाशित व्यंग्य

Wednesday, 4 September 2013

फाइल की कलाबाजी - डॉ. हनुमान गालवा

http://newstoday.epapr.in/155695/Newstoday-Jaipur/04-09-2013#page/5/1

फाइल की कलाबाजी
- डॉ. हनुमान गालवा
कोयला घोटाले की फाइल खो गई। इस पर बवाल ठीक नहीं है। खुद प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि इसमें वे क्या कर सकते हैं? दिनभर देश में फाइल इधर-उधर होती रहती है। इसमें कुछ फाइल कहीं अटक जाए या भटक जाए तो भला कोई क्या कर सकता है? इसमें सरकार या चौकसी एजेंसी की क्षमता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। आप और हमें एक छोटे से कमरे से अपना चश्मा ढूंढऩे में भी पसीना आ जाता है, लेकिन सीबीआई ने हंसते-हंसते भंवरी प्रकरण में नहर से अंगूठी ढूंढ़ लाने का करिश्मा कर दिखाया। ऐसे में सरकार के सामथ्र्य को लेकर भी कोई संशय नहीं होना चाहिए। सरकार बाबाओं को पकड़वाने के लिए घेराबंदी करती है, लेकिन आतंकवादियों का गिरफ्तारी के लिए स्वत: ही चले आने का इंतजार करती है। जो भाग सकता है उसे पकडऩे के लिए भागना बुद्धिमानी नहीं है। बुद्धिमानी इसी में है कि जो भाग नहीं सकता है, उसे पकड़ लो और जो पकड़ में नहीं आ सकता है, उसे पकड़ में आने का इंतजार करो। रही बात फाइल की, तो फाइल तो दूसरी बनाई जा सकती है। फाइल का क्लोन तैयार करने की कला में भी हम पारंगत हैं। जो फाइल दूसरी बनाई जा सकती है तो उसके लिए रोने-धोने की क्या जरूरत? हरवंश राय बच्चन की कविता को अपडेट करके मन को दिलासा दी जा सकती है कि एक फाइल थी। खो गई सो खो गई। खोई हुई फाइलों पर सरकार कब मातम मनाती है...। समझने वाली बात यह है कि फाइलों की गति से ही देश गतिमान है। फाइल चलती है, तो सरकार चलती है। फाइल खोती है, तो सरकार बचती है। खोई हुई फाइल या तो किसी घटक को डराने के लिए मिलती है या फिर किसी मुद्दे पर समर्थन जुटाने के लिए मिलती है। दरसअल, फाइल खोती नहीं है, वह तो केवल अदृश्य होती है। जरूरत के अनुरूप फाइल का प्रकट होना, गायब करना और उधर-उधर होने की कलाबाजी से ही सरकार बनती है, चलती है और बचती है।
न्यूज टुडे जयपुर में 4 सितंबर, 2013 को प्रकाशित व्यंग्य

Sunday, 25 August 2013

जातिवाद का बोलबाला

जातिवाद का बोलबाला

राजस्थान के विभिन्न विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के छात्रसंघ चुनाव परिणामों का सामाजिक एवं राजनीतिक विश्लेषण किया जाए, तो हालात चिंताजनक हंै। चुनावी नतीजों से साफ है कि एक तो छात्र राजनीति पूरी तरह आरक्षित वर्ग के छात्र-छात्राओं तक सिमटती जा रही है, दूसरी बात अनारक्षित वर्ग के विद्यार्थी पूरी तरह हाशिए पर आ गए हैं या आने के कगार पर हैं।

यह स्थिति इसलिए पैदा नहीं हो रही है कि आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों में अचानक राजनीतिक चेतना आ गई है? आरक्षण के राजनीतिकरण के चलते इसके दायरे में ऎसी कई जातियां शामिल कर ली गई, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप में सामान्य वर्ग के समकक्ष थीं। प्रवेश में आरक्षण के रोस्टर के चलते सामान्य वर्ग की सीटों पर भी आरक्षित वर्ग की प्रभावशाली जातियों के विद्यार्थी भर गए। अनारक्षित वर्ग के गिने-चुने विद्यार्थियों का ही सरकारी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय में दाखिला हो पा रहा है। आरक्षण की राजनीति में जातिवाद के तड़के ने उच्च शिक्षा के इन केन्द्रों में प्रमुख राजनीतिक दलों के समर्थित छात्र संगठनों की राजनीति में भी संगठन शक्ति को गौण कर दिया।

अब भारतीय विद्यार्थी परिषद हो या एनएसयूआई या फिर एसएफआई, सभी को अपने खाते में जीत दर्ज करवाने के लिए उसी जाति के प्रत्याशी चाहिए, जिस जाति के छात्र मतदाता ज्यादा हैं। विश्वविद्यालय चूंकि लोकतंत्र की पाठशाला माने जाते हैं। यदि इसी पाठशाला में चुनाव जीतने के लिए जातिवाद की तिकड़म आजमाई जाएगी या सिखलाई जाएगी, तो यहां से निकलने वाले युवाओं से लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप आचरण की उम्मीद कैसे की जा सकती है? हालात यही रहे और इसी तरह जातिवाद को उकसाते और भुनाते रहे, तो उच्च शिक्षा के ये केन्द्र जातिवादी राजनीति के अखाड़े बनकर रह जाएंगे।

आरक्षण की व्यवस्था के चलते सरकारी विश्वविद्यालय और महाविद्यालय में शिक्षा पाने से अनारक्षित वर्ग के विद्यार्थी वंचित रह रहे हैं, तो क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए वे क्या करेंगे या कहां जाएंगे? राजनीतिक लाभ-हानि से इतर सभी के हित को केन्द्र में रखकर नहीं सोचा जाएगा, तो समाज में नई तरह की विषमताएं पैदा होंगी, जिससे हमारी सामाजिक समरसता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। आरक्षण व्यवस्था पर पुनर्विचार संभव नहीं हो, तो कम से कम इससे पैदा होने वाली समस्याओं और विकृतियों को रोकने के समुचित उपाय तो किए ही जा सकते हैं।

चूंकि राजनीतिक दलों की तरह अब छात्रसंघ चुनाव में प्रत्याशी के चयन से लेकर चुने जाने तक की प्रक्रिया में जातिगत मतों के ध्रुवीकरण, समझौते और समझाइश की कवायद साफतौर पर दिखलाई पड़ रही है, इसलिए अब छात्रसंघ के विभिन्न कार्यक्रमों में भी नेता जातिवाद को उकसाते-भुनाते दिखे को कोई अचरज की बात नहीं। इसी का विकृत रूप हमारी चुनावी राजनीति में दिखता है, तो यह समझने की कोशिश क्यों नहीं करते कि हम अपने ही बोए हुए कांटों का दर्द झेलते हैं। छात्रसंघ के रूप में परिसर में जातिवादी राजनीति अंकुरित होती है, जिसे राजनीतिक दल चुनावी राजनीति में सोशल इंजीनियरिंग, जाति आधारित भाईचारा सम्मेलन और तुष्टीकरण से वटवृक्ष बना देते हैं। इस स्थिति में हम जातिवादी राजनीति को केवल कोस सकते हैं, लेकिन व्यवहार में इसे झेलने, सहने और आगे बढ़ाने को विवश दिखते हैं।

छात्रसंघ से लेकर संसद तक पोषित हो रही धर्म-जाति की राजनीति से निजात पाना बेहद मुश्किल है, लेकिन असंभव कतई नहीं। जातिवादी राजनीति सभी दलों और नेताओं को इसलिए भी सुहाती है, क्योंकि इसमें मुद्दे गौण हो जाते हैं और जातिगत अहंकार हावी हो जाता है। जब बिना मुद्दे ही जातिवाद के आधार पर चुनाव जीता जा सकता है, तो फिर कोई अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए मतदाताओं के पास रचनात्मक कार्यक्रम लेकर क्यों जाएगा? चुनाव लड़ने या जीतने का आधार जब जातिवाद रह जाएगा, तो फिर मतदाताओं को लुभाने के लिए किसी ठोस कार्यक्रम की जरूरत क्या? जब प्रत्याशी की कोई नीति नहीं होगी और उसके पास अपना कोई कार्यक्रम नहीं होगा, तो वह चुनाव जीतकर भी व्यवस्था में भला क्या सुधार कर पाएगा और सुधार करेगा भी क्यों? जातिवादी राजनीति का बोलबाला कार्यक्रम, नीति और योजनाओं में भी साफ दिखाई देता है।

इसीलिए छात्रसंघ भी परिसर में शैक्षिक माहौल नहीं लौटा पाता है और हमारे मतों से चुने जाने वाले हमारे नीति-नियंता भी खुशहाल और समृद्ध लोकतांत्रिक समाज का निर्माण कर पाने में विफल रहते हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि केवल चुनाव करवा लेना ही काफी नहीं है। हमें यह भी देखना होगा कि इन चुनावों से हमें हासिल क्या हो रहा है? क्या इन चुनावों से हम ऎसा भावी नेतृत्व तैयार कर पाएंगे, जो चुनौतियों का सामना करके देश और समाज के हितों की रक्षा कर पाने में सक्षम है? छात्रसंघ अध्यक्ष हो, विधायक-सांसद या फिर पंच-सरपंच, हम जातिगत भावना के वशीभूत होकर मतदान करेंगे, तब हमारे जातिवादी अहंकार की तुष्टि तो संभव है, लेकिन हम सक्षम नेतृत्व का चयन कदापि नहीं कर पाएंगे।

सक्षम नेतृत्व के चयन में हमारा मत तभी निर्णायक हो सकता है, जब वोट देते समय हमारी समस्याओं को सुलझाने की उसकी समझ और सामथ्र्य को देखें। यह तभी संभव है, तब हमारे सोचने का दायरा संकीर्ण न हो और हम सभी की भलाई चाहें। मुद्दे आधारित राजनीति का हाशिए पर जाना लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है। इसे समझने और लोकशाही को मजबूत बनाने के लिए चेतने और चेताने की जरूरत है।

डॉ. हनुमान गालवा

 http://dailynewsnetwork.epapr.in/152103/Daily-news/26-08-2013#page/7/1
डेली न्यूज, जयपुर में 26 अगस्त, 2013 को प्रकाशित आलेख

Wednesday, 21 August 2013

हम विश्वगुरु जो ठहरे - डॉ. हनुमान गालवा

http://newstoday.epapr.in/150202/Newstoday-Jaipur/21-08-2013#page/5/1

 हम विश्वगुरु जो ठहरे
- डॉ. हनुमान गालवा
आतंकवादियों के बम गुरु को पकड़कर हमने भी साबित कर दिया कि हम भी आखिर विश्वगुरु रहे हैं। हमारी यह उपलब्धि अमेरिका को भी मात देने वाली है। अमेरिका को एक आतंकी सरगना को पकडऩे के लिए विशेष सैन्य कार्रवाई करनी पड़ी। उस कार्रवाई का लाइव प्रसारण वहां के राष्ट्रपति ने देखा। हमारी कार्रवाई का वीडियो देखेंगे तो उनके समझ में आ जाएगा कि आतंकी को पकडऩे के लिए युद्ध करने की जरूरत नहीं है। यह कला सिर्फ हमें ही आती है। हमें पूरा यकीन था कि बम गुरु भारत ही आएगा। ओसामा बिन लादेन ने पाकिस्तान में शरण लेने की जो गलती की थी, उसे वह कतई नहीं दोहराएगा। फिर जब बुढ़ापा सुधारने के लिए भारत आने का उसका खुफिया संदेश पकड़ गया तो हमारा खुफिया तंत्र बेफिक्र हो गया था कि वह यहीं आएगा। उसने हमारे भरोसे को नहीं तोड़ा। उसने भारत भूमि पर प्रवेश किया तो इस उपलब्धि को लपकने के लिए स्पेशल पुलिस की स्पेशल टीम तैयार बैठी थी। उत्साह में हम गिरफ्तारी और किसी वीआईपी की अगवानी में फर्क ही भूल गए। फोटो ऐसे उतार रहे थे, जैसे जिसका फोटो इस बम गुरु के साथ नहीं होगा, उसे इस उपलब्धि के खाते में प्रमोशन नहीं मिलेगा। खैर, यह अच्छी बात रही कि हमारी इस उपलब्धि से नुकसान किसी को नहीं हुआ। जिनके लिए वह बम बनाता था, वह आतंकी संगठन भी उसके बुढ़ापे को देखते हुए उससे किनारा कर चुके थे। वह बेचारा लाहोर की सड़कों पर इत्र बेचकर दिन काट रहा था। अब यहां आ गया तो उसके सब कष्ट मिट जाएंगे। जेल में रहा तो शाही ठाठ और बाहर आ गया तब भी उसके मौज। पांच रुपए में भरपेट भोजन चाहिए तो वह दिल्ली में जमा रह सकता है और खाने के लिए 12 रुपए होंगे तो वह मुंबई का भी मेहमान बन सकता है। एक रुपए में वह भरपेट खाने के साथ कश्मीर की सैर मुफ्त में कर सकता है।
न्यूज टुडे जयपुर में 21 अगस्त, 2013 को प्रकाशित व्यंग्य

Monday, 29 July 2013

रंग लाएगा माफीनामा - डॉ. हनुमान गालवा

http://newstoday.epapr.in/141311/Jaipur-Regional/29-07-2013#page/5/1

रंग लाएगा माफीनामा
- डॉ. हनुमान गालवा
खाकी अपनी छवि सुधारने को लेकर चिंतित है। अब खाकी को सिखाया-समझाया जा रहा है कि लोगों से सलीके से पेश आएं। अब किसी प्रकरण में खाकी पहले रौब झाड़ेगी और फिर क्षमा याचना करते हुए प्रताडि़त को समझाएगी कि यह आपके हित में है। खाकी की भाषा को लेकर कई शोध हो चुके हैं। तमाम शोध निष्कर्षों का सार यही रहा कि खाकी के मुंह से नम्रता बरसेगी तो फिर बदमाश डरेंगे कैसे? वैसे भी खाकी के पास जुबान ही एकमात्र कारगर हथियार है, जिससे खाकी का रुतबा बचा हुआ है। यही हथियार भौंथरा कर दिया जाएगा तो फिर खाकी की कौन सुनेगा। खैर, जब खाकी को ही अपने रुतबे की परवाह नहीं है तो फिर हम पराए दुख क्यों दुबले हों? मुद्दे की बात करते हैं। जरा सोचिए, जब खाकी की चाल-चलन और बोली बदल जाएगी, तब कैसा माहौल होगा। जब कोई लूट की बड़ी वारदात होगी, तब हर बार की तरह लूटेरों का पीछा करने की बजाय जगह-जगह नाकेबंदी में अपनी मुस्तैदी दिखाकर आने-जाने वालों की जेब का बोझ हल्का करके सिपाही मुस्कुराते हुए कहते मिलेंगे कि सॉरी, यह आपके हित में हैं। सिपाही यह भी समझाते हुए मिल जाएंगे कि देखिए चालान कटवाएंगे तो पूरे दौ सौ रुपए लगेंगे, हम आपकी सेवा कुछ कम में ही कर देंगे। लोग भी खुश होंगे कि चलो एक सौ रुपए बचा लिए और सिपाही भी खुश कि चलो दिन बेकार नहीं गया। किसी चोर से चोरी की अन्य वारदातें भी कबूल करवानी हो तो हवालात में उसे सलीके से समझाया जाएगा कि यह तेरे भी हित में है और हमारे भी, क्योंकि तेरा इससे रुतबा बढ़ेगा और हमारी इससे नौकरी बची रहेगी। फर्जी मुठभेड़ में भी किसी के प्राण लेने से पहले उससे क्षमा याचना की जाएगी कि सॉरी, तेरे को ऊपर भेजना हमारे ऊपर वालों की मर्जी है। आंदोनकारियों के तंबू उखाड़ते हुए सिपाही भी अनुनय-विनय करेंगे कि आपके तंबू नहीं उखाड़े तो सरकार हमारे तंबू उखाड़ देगी। वकीलों का उग्र प्रदर्शन खाकी रोकने के बजाय लोगों से क्षमा याचना करते हुए मिलेगी कि सॉरी, हमारे बॉस का हित इसी में है कि आपको परेशान होने दिया जाए।
न्यूज टुडे, जयपुर में 29 जुलाई, 2013 को प्रकाशित व्यंग

Saturday, 20 July 2013

क्यों रोके सरकार
- डॉ. हनुमान गालवा
इंटरनेट पर दौड़ रही अश्लीललता सरकार नहीं रोक सकती। चूंकि सरकार ने यह पते की बात न्यायालय में हलफनामा देकर कही है। लिहाजा अब सरकार के सामने अपनी बात से मुकरने का भी कोई चांस नहीं है। साफ कहना और सुखी रहना। पहली बार सरकार ने सच स्वीकारने की हिम्मत दिखाई। गुणीजन भी सरकार की पीठ थपथपाने के बजाय पता नहीं क्यों कान खींचने लगे हैं। आखिर सरकार किस-किस को रोके। ममता दीदी को रोकने के सरकार ने कोई कम प्रयास थोड़े ही किए थे। ममता दीदी को नहीं रोक पाने पर सरकार को ज्ञान हुआ कि जिसे रुकना है, वही रुकेगा और जिसे जाना है, उसे कोई नहीं रोक सकता। दीदी गई तो सरकार बचाने के लिए नए दीदी (मायावती) और भाई साहब (मुलायम सिंह) आ गए। ये दोनों उत्तर प्रदेश में लड़ रहे हैं, लेकिन केन्द्र में यूपीए सरकार को बचाने में इनका झगड़ा बाधक नहीं है। जब से ममता दीदी सरकार से रुठी है, तब से सरकार ने तय कर लिया है कि अब न तो किसी को रोकेगी और न ही किसी को बुलाएगी। जब सरकार बिना चलाए ही चल रही है और घटक दल बिना रोके ही रुक रहे हैं तो फिर इंटरनेट पर अश्लीलता जब थकेगी, अपने आप रुक जाएगी। अपने आप ही रुक जाने की उम्मीद में सरकार न तो महंगाई रोक रही है और न ही आतंकवाद और नक्सली हमले रोकने का कोई प्रयास कर रही है। अलबता सरकार के कर्णधार बयानों से बार-बार चुनौती देकर इनको ललकार रहे हैं, ताकि थक हार कर ये चुनौतियां भी अपने आप ही रुक जाए। अब यह घोषित करने का वक्त आ गया है कि रोकना सरकार का काम नहीं है। सरकार का काम टालना या अटकाना है, जो बखूबी कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन को ही ले लीजिए। सरकार ने कैसे एक जन आंदोलन को केजरीवाल की पार्टी में समेटकर अपनी बला टाल दी। महंगाई रोकने की तारीख दर तारीख से लोगों ने महंगाई के बारे में सोचना ही बंद कर दिया। जब समस्या टालने या अटकाने से ही सुलझ रही है तो फिर उनको रोकने की क्या जरूरत?
न्यूज टुडे जयपुर के 20 जुलाई, 2013 के संस्करण में प्रकाशित व्यंग्य 
http://newstoday.epapr.in/138116/Newstoday-Jaipur/20-07-2013#page/5/1

Saturday, 13 July 2013

बैकडोर भर्तियों का नियमन





http://www.dailynewsnetwork.in/news/opinion/06062013/Opinion/91520.html


daily01

राजस्थान में शिक्षा सहयोगियों की भर्ती के परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक सरकार के अलोकतांत्रिक आचरण को समझा जा सकता है। यह एक ऎसी भर्ती है, जिसमें आवेदन से लेकर चयन तक की प्रक्रिया पर ऎसे कई सवाल खड़े हैं, जो इसकी निष्पक्षता को चुनौती देते हैं। ताजा हालात को देखते हुए लगता है कि पहले से सब कुछ तय है।

ऎसे में भर्ती की नौटंकी क्यों? यह कवायद सिर्फ इसलिए की जा रही है, ताकि उनकी राह में कोई कानूनी अड़चन नहीं आए। इस भर्ती और अतिक्रमणों के नियमन में कोई फर्क नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो आजकल सरकारी नौकरियों में ज्यादातर भर्तियां इसी तर्ज पर होने लगी हंै।

पहले मनमाने तरीके से बिना किसी मानदंड के अस्थाई रखा जाता है। जब अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़ जाती है, तब चुनावी फायदे के लिए सरकार एक ही फरमान से सभी को स्थाई नौकरी का तोहफा दे देती है या फिर इस राह में कानूनी बाधा आने पर उसे आसान बनाने के लिए नियम-कायदों को ही बदल डालती है।

सरकार की इसी कोशिश में सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापकों के तीन संवर्ग बन गए हैं। पहला संवर्ग तो उन अध्यापकों का है, जो प्रतियोगी परीक्षा के जरिए चयनित होकर मैरिट से लगे हैं। दूसरा संवर्ग उनका है, जो स्थानीय राजनीतिक एप्रोच से पैराटीचर के रूप में लगे थे और जिनको स्थाई करने के लिए सरकार को प्रबोधक पद सृजित करना पड़ा। तीसरा संवर्ग अब शिक्षा सहयोगियों का बनने जा रहा है, जो विद्यार्थी मित्र के रूप में पूर्णया अस्थाई रूप से शिक्षकों के रिक्त पदों पर लगाए गए थे।

इस तरह की भर्तियों में पदनाम बदलकर सरकार कानूनी प्रावधानों का भी तोड़ निकाल लेती है। गत दिनों एक सरकारी विश्वविद्यालय में चपरासी के सात पदों के लिए पूरे प्रदेश से आशार्थियों को बुलाया गया। पूरे तीन दिन साक्षात्कार की नौटंकी हुई और परिणाम फिक्स था। यानी पहले से अस्थाई लगे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को स्थाई करने की कवायद में सैकड़ों आशार्थियों को बेवजह परेशान होना पड़ा। राजस्थान प्रशासनिक सेवा की एक चर्चित भर्ती का उदाहरण यहां समीचन होगा। उस समय आरपीएससी ने आरएएस के एक पद के लिए आवेदन मांगे और हायर सैकंडरी उत्तीüण अभ्यर्थियों को भी आवेदन के लिए विशेष छूट दी गई। पूरे प्रदेश से बड़ी तादाद में आवेदन आए।

लिखित परीक्षा हुई और साक्षात्कार की भी रस्म अदायगी हुई। परिणाम आया, तब लोगों को पता लगा कि यह भर्ती तत्कालीन मुख्यमंत्री के नोन ग्रेजुएट दामाद को आरएसएस अफसर बनाने की तिकड़म थी। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रतिभाओं को दरकिनार करने के लिए सरकार खुद व्यवस्था को तोड़ने लगेगी, तो व्यवस्था के प्रति आम आदमी का भरोसा कैसे कायम रह पाएगा। यह स्थिति न्याय आधारित व्यवस्था को झुठलाती है। तिकड़म और मनमानी को किसी रूप में प्रश्रय व्यवस्था को नाकारा ही बनाएगा। ऎसी स्थिति व्यवस्था को अराजकता की ओर धकेलती है।

सरकार की भर्ती और नियमन प्रक्रिया में कथनी और करनी का भेद साफ दिखता है। सरकार में बैठे लोग वादा तो व्यवस्था को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने का करते हैं, लेकिन व्यवहार में तंत्र को अपने हिसाब से हांकते दिखते हैं। सरकार अपनी आवासीय योजना में मकान या भूखंड के उन लोगों से तमाम करों सहित पूरे दाम वसूलती है, जो नियमानुसार आवेदन करते हैं, कर चुकाते हैं और व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखते हैं। समय-समय पर चुनावी ताकत का एहसास कराने वाले कर्मचारी वर्ग को सरकार कुछ छूट देती है।

सरकार को धौंस दिखाने वालों को आधी छूट दी जाती है, लेकिन उन लोगों को पूरी छूट दी जाती है, जो कानून-कायदे को ताक में रखकर सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करके काबिज होते हैं। इसी तरह बिजली-पानी के कनेक्शन के लिए विभागीय मानदंडों को पूरा करने वाले दर-दर की ठोकरे खाते फिरते हैं, जबकि चोरीवाड़े से लिए गए कनेक्शन को सरकार नियमित कर देती है। यही आलम सरकार की ऋण योजनाओं का है। जो किसान समय पर कर्ज चुकता करता है, उसे कोई छूट नहीं मिलती है। जो कर्ज नहीं चुकाते हैं, वे मजे में रहते हैं, क्योंकि सरकार एकमुश्त कर्ज माफी की घोषणा कर देती है। पग-पग में तंत्र साहूकार को चोर साबित करता और चोर का साथ देता दिखता है।

व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखने वालों को प्रताड़ना और व्यवस्था को धता बताने वालों को किसी रूप में दुलार समूची व्यवस्था को ही विकृत बना देता है। हालांकि भर्तियों को निष्पक्ष बनाने की कई बार कोशिश भी हुई और उन प्रयासों के सार्थक परिणाम भी परिलक्षित होने लगे, लेकिन राजनीतिक तिकड़बाजों को रास नहीं आने से सुधार की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई। पूर्ववती भाजपा सरकार के थर्ड ग्रेड टीचर की भर्ती आरपीएससी से करवाने के निर्णय को उलटकर वर्तमान सरकार ने यह काम पुन: जिला परिषदों के हवाले कर दिया। साक्षात्कार बंद करके पुलिस भर्ती में मनमानी रोकने के प्रयास हुए, लेकिन अन्य भर्ती परीक्षाओं की साक्षात्कार प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाने के कोई प्रयास नहीं हुए।

सरकार केवल साक्षात्कार प्रक्रिया को कैमरे में कैद करवाने की ही अनिवार्यता कर दे, तो बाकी काम तो सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से खुद अभ्यर्थी कर देंगे। सुधार नहीं हुआ तो लोगों का व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ेगा, जिसे रोक पाना मुश्किल होगा। भर्तियों को निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं बनाया गया, तो सरकारी नौकरियों में तिकड़मबाजों का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा। यह स्थिति न तो सरकार के लिए ठीक होगी और न ही इससे नागरिक सुविधा-सेवा को सुदृढ़ बनाया जा सकेगा।


डॉ. हनुमान गालवा
बैकडोर भर्तियों का नियमन





http://www.dailynewsnetwork.in/news/opinion/06062013/Opinion/91520.html


daily01

राजस्थान में शिक्षा सहयोगियों की भर्ती के परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक सरकार के अलोकतांत्रिक आचरण को समझा जा सकता है। यह एक ऎसी भर्ती है, जिसमें आवेदन से लेकर चयन तक की प्रक्रिया पर ऎसे कई सवाल खड़े हैं, जो इसकी निष्पक्षता को चुनौती देते हैं। ताजा हालात को देखते हुए लगता है कि पहले से सब कुछ तय है।

ऎसे में भर्ती की नौटंकी क्यों? यह कवायद सिर्फ इसलिए की जा रही है, ताकि उनकी राह में कोई कानूनी अड़चन नहीं आए। इस भर्ती और अतिक्रमणों के नियमन में कोई फर्क नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो आजकल सरकारी नौकरियों में ज्यादातर भर्तियां इसी तर्ज पर होने लगी हंै।

पहले मनमाने तरीके से बिना किसी मानदंड के अस्थाई रखा जाता है। जब अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़ जाती है, तब चुनावी फायदे के लिए सरकार एक ही फरमान से सभी को स्थाई नौकरी का तोहफा दे देती है या फिर इस राह में कानूनी बाधा आने पर उसे आसान बनाने के लिए नियम-कायदों को ही बदल डालती है।

सरकार की इसी कोशिश में सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापकों के तीन संवर्ग बन गए हैं। पहला संवर्ग तो उन अध्यापकों का है, जो प्रतियोगी परीक्षा के जरिए चयनित होकर मैरिट से लगे हैं। दूसरा संवर्ग उनका है, जो स्थानीय राजनीतिक एप्रोच से पैराटीचर के रूप में लगे थे और जिनको स्थाई करने के लिए सरकार को प्रबोधक पद सृजित करना पड़ा। तीसरा संवर्ग अब शिक्षा सहयोगियों का बनने जा रहा है, जो विद्यार्थी मित्र के रूप में पूर्णया अस्थाई रूप से शिक्षकों के रिक्त पदों पर लगाए गए थे।

इस तरह की भर्तियों में पदनाम बदलकर सरकार कानूनी प्रावधानों का भी तोड़ निकाल लेती है। गत दिनों एक सरकारी विश्वविद्यालय में चपरासी के सात पदों के लिए पूरे प्रदेश से आशार्थियों को बुलाया गया। पूरे तीन दिन साक्षात्कार की नौटंकी हुई और परिणाम फिक्स था। यानी पहले से अस्थाई लगे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को स्थाई करने की कवायद में सैकड़ों आशार्थियों को बेवजह परेशान होना पड़ा। राजस्थान प्रशासनिक सेवा की एक चर्चित भर्ती का उदाहरण यहां समीचन होगा। उस समय आरपीएससी ने आरएएस के एक पद के लिए आवेदन मांगे और हायर सैकंडरी उत्तीüण अभ्यर्थियों को भी आवेदन के लिए विशेष छूट दी गई। पूरे प्रदेश से बड़ी तादाद में आवेदन आए।

लिखित परीक्षा हुई और साक्षात्कार की भी रस्म अदायगी हुई। परिणाम आया, तब लोगों को पता लगा कि यह भर्ती तत्कालीन मुख्यमंत्री के नोन ग्रेजुएट दामाद को आरएसएस अफसर बनाने की तिकड़म थी। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रतिभाओं को दरकिनार करने के लिए सरकार खुद व्यवस्था को तोड़ने लगेगी, तो व्यवस्था के प्रति आम आदमी का भरोसा कैसे कायम रह पाएगा। यह स्थिति न्याय आधारित व्यवस्था को झुठलाती है। तिकड़म और मनमानी को किसी रूप में प्रश्रय व्यवस्था को नाकारा ही बनाएगा। ऎसी स्थिति व्यवस्था को अराजकता की ओर धकेलती है।

सरकार की भर्ती और नियमन प्रक्रिया में कथनी और करनी का भेद साफ दिखता है। सरकार में बैठे लोग वादा तो व्यवस्था को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने का करते हैं, लेकिन व्यवहार में तंत्र को अपने हिसाब से हांकते दिखते हैं। सरकार अपनी आवासीय योजना में मकान या भूखंड के उन लोगों से तमाम करों सहित पूरे दाम वसूलती है, जो नियमानुसार आवेदन करते हैं, कर चुकाते हैं और व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखते हैं। समय-समय पर चुनावी ताकत का एहसास कराने वाले कर्मचारी वर्ग को सरकार कुछ छूट देती है।

सरकार को धौंस दिखाने वालों को आधी छूट दी जाती है, लेकिन उन लोगों को पूरी छूट दी जाती है, जो कानून-कायदे को ताक में रखकर सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करके काबिज होते हैं। इसी तरह बिजली-पानी के कनेक्शन के लिए विभागीय मानदंडों को पूरा करने वाले दर-दर की ठोकरे खाते फिरते हैं, जबकि चोरीवाड़े से लिए गए कनेक्शन को सरकार नियमित कर देती है। यही आलम सरकार की ऋण योजनाओं का है। जो किसान समय पर कर्ज चुकता करता है, उसे कोई छूट नहीं मिलती है। जो कर्ज नहीं चुकाते हैं, वे मजे में रहते हैं, क्योंकि सरकार एकमुश्त कर्ज माफी की घोषणा कर देती है। पग-पग में तंत्र साहूकार को चोर साबित करता और चोर का साथ देता दिखता है।

व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखने वालों को प्रताड़ना और व्यवस्था को धता बताने वालों को किसी रूप में दुलार समूची व्यवस्था को ही विकृत बना देता है। हालांकि भर्तियों को निष्पक्ष बनाने की कई बार कोशिश भी हुई और उन प्रयासों के सार्थक परिणाम भी परिलक्षित होने लगे, लेकिन राजनीतिक तिकड़बाजों को रास नहीं आने से सुधार की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई। पूर्ववती भाजपा सरकार के थर्ड ग्रेड टीचर की भर्ती आरपीएससी से करवाने के निर्णय को उलटकर वर्तमान सरकार ने यह काम पुन: जिला परिषदों के हवाले कर दिया। साक्षात्कार बंद करके पुलिस भर्ती में मनमानी रोकने के प्रयास हुए, लेकिन अन्य भर्ती परीक्षाओं की साक्षात्कार प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाने के कोई प्रयास नहीं हुए।

सरकार केवल साक्षात्कार प्रक्रिया को कैमरे में कैद करवाने की ही अनिवार्यता कर दे, तो बाकी काम तो सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से खुद अभ्यर्थी कर देंगे। सुधार नहीं हुआ तो लोगों का व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ेगा, जिसे रोक पाना मुश्किल होगा। भर्तियों को निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं बनाया गया, तो सरकारी नौकरियों में तिकड़मबाजों का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा। यह स्थिति न तो सरकार के लिए ठीक होगी और न ही इससे नागरिक सुविधा-सेवा को सुदृढ़ बनाया जा सकेगा।


डॉ. हनुमान गालवा
बैकडोर भर्तियों का नियमन





http://www.dailynewsnetwork.in/news/opinion/06062013/Opinion/91520.html


daily01

राजस्थान में शिक्षा सहयोगियों की भर्ती के परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक सरकार के अलोकतांत्रिक आचरण को समझा जा सकता है। यह एक ऎसी भर्ती है, जिसमें आवेदन से लेकर चयन तक की प्रक्रिया पर ऎसे कई सवाल खड़े हैं, जो इसकी निष्पक्षता को चुनौती देते हैं। ताजा हालात को देखते हुए लगता है कि पहले से सब कुछ तय है।

ऎसे में भर्ती की नौटंकी क्यों? यह कवायद सिर्फ इसलिए की जा रही है, ताकि उनकी राह में कोई कानूनी अड़चन नहीं आए। इस भर्ती और अतिक्रमणों के नियमन में कोई फर्क नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो आजकल सरकारी नौकरियों में ज्यादातर भर्तियां इसी तर्ज पर होने लगी हंै।

पहले मनमाने तरीके से बिना किसी मानदंड के अस्थाई रखा जाता है। जब अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़ जाती है, तब चुनावी फायदे के लिए सरकार एक ही फरमान से सभी को स्थाई नौकरी का तोहफा दे देती है या फिर इस राह में कानूनी बाधा आने पर उसे आसान बनाने के लिए नियम-कायदों को ही बदल डालती है।

सरकार की इसी कोशिश में सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापकों के तीन संवर्ग बन गए हैं। पहला संवर्ग तो उन अध्यापकों का है, जो प्रतियोगी परीक्षा के जरिए चयनित होकर मैरिट से लगे हैं। दूसरा संवर्ग उनका है, जो स्थानीय राजनीतिक एप्रोच से पैराटीचर के रूप में लगे थे और जिनको स्थाई करने के लिए सरकार को प्रबोधक पद सृजित करना पड़ा। तीसरा संवर्ग अब शिक्षा सहयोगियों का बनने जा रहा है, जो विद्यार्थी मित्र के रूप में पूर्णया अस्थाई रूप से शिक्षकों के रिक्त पदों पर लगाए गए थे।

इस तरह की भर्तियों में पदनाम बदलकर सरकार कानूनी प्रावधानों का भी तोड़ निकाल लेती है। गत दिनों एक सरकारी विश्वविद्यालय में चपरासी के सात पदों के लिए पूरे प्रदेश से आशार्थियों को बुलाया गया। पूरे तीन दिन साक्षात्कार की नौटंकी हुई और परिणाम फिक्स था। यानी पहले से अस्थाई लगे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को स्थाई करने की कवायद में सैकड़ों आशार्थियों को बेवजह परेशान होना पड़ा। राजस्थान प्रशासनिक सेवा की एक चर्चित भर्ती का उदाहरण यहां समीचन होगा। उस समय आरपीएससी ने आरएएस के एक पद के लिए आवेदन मांगे और हायर सैकंडरी उत्तीüण अभ्यर्थियों को भी आवेदन के लिए विशेष छूट दी गई। पूरे प्रदेश से बड़ी तादाद में आवेदन आए।

लिखित परीक्षा हुई और साक्षात्कार की भी रस्म अदायगी हुई। परिणाम आया, तब लोगों को पता लगा कि यह भर्ती तत्कालीन मुख्यमंत्री के नोन ग्रेजुएट दामाद को आरएसएस अफसर बनाने की तिकड़म थी। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रतिभाओं को दरकिनार करने के लिए सरकार खुद व्यवस्था को तोड़ने लगेगी, तो व्यवस्था के प्रति आम आदमी का भरोसा कैसे कायम रह पाएगा। यह स्थिति न्याय आधारित व्यवस्था को झुठलाती है। तिकड़म और मनमानी को किसी रूप में प्रश्रय व्यवस्था को नाकारा ही बनाएगा। ऎसी स्थिति व्यवस्था को अराजकता की ओर धकेलती है।

सरकार की भर्ती और नियमन प्रक्रिया में कथनी और करनी का भेद साफ दिखता है। सरकार में बैठे लोग वादा तो व्यवस्था को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने का करते हैं, लेकिन व्यवहार में तंत्र को अपने हिसाब से हांकते दिखते हैं। सरकार अपनी आवासीय योजना में मकान या भूखंड के उन लोगों से तमाम करों सहित पूरे दाम वसूलती है, जो नियमानुसार आवेदन करते हैं, कर चुकाते हैं और व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखते हैं। समय-समय पर चुनावी ताकत का एहसास कराने वाले कर्मचारी वर्ग को सरकार कुछ छूट देती है।

सरकार को धौंस दिखाने वालों को आधी छूट दी जाती है, लेकिन उन लोगों को पूरी छूट दी जाती है, जो कानून-कायदे को ताक में रखकर सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करके काबिज होते हैं। इसी तरह बिजली-पानी के कनेक्शन के लिए विभागीय मानदंडों को पूरा करने वाले दर-दर की ठोकरे खाते फिरते हैं, जबकि चोरीवाड़े से लिए गए कनेक्शन को सरकार नियमित कर देती है। यही आलम सरकार की ऋण योजनाओं का है। जो किसान समय पर कर्ज चुकता करता है, उसे कोई छूट नहीं मिलती है। जो कर्ज नहीं चुकाते हैं, वे मजे में रहते हैं, क्योंकि सरकार एकमुश्त कर्ज माफी की घोषणा कर देती है। पग-पग में तंत्र साहूकार को चोर साबित करता और चोर का साथ देता दिखता है।

व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखने वालों को प्रताड़ना और व्यवस्था को धता बताने वालों को किसी रूप में दुलार समूची व्यवस्था को ही विकृत बना देता है। हालांकि भर्तियों को निष्पक्ष बनाने की कई बार कोशिश भी हुई और उन प्रयासों के सार्थक परिणाम भी परिलक्षित होने लगे, लेकिन राजनीतिक तिकड़बाजों को रास नहीं आने से सुधार की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई। पूर्ववती भाजपा सरकार के थर्ड ग्रेड टीचर की भर्ती आरपीएससी से करवाने के निर्णय को उलटकर वर्तमान सरकार ने यह काम पुन: जिला परिषदों के हवाले कर दिया। साक्षात्कार बंद करके पुलिस भर्ती में मनमानी रोकने के प्रयास हुए, लेकिन अन्य भर्ती परीक्षाओं की साक्षात्कार प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाने के कोई प्रयास नहीं हुए।

सरकार केवल साक्षात्कार प्रक्रिया को कैमरे में कैद करवाने की ही अनिवार्यता कर दे, तो बाकी काम तो सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से खुद अभ्यर्थी कर देंगे। सुधार नहीं हुआ तो लोगों का व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ेगा, जिसे रोक पाना मुश्किल होगा। भर्तियों को निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं बनाया गया, तो सरकारी नौकरियों में तिकड़मबाजों का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा। यह स्थिति न तो सरकार के लिए ठीक होगी और न ही इससे नागरिक सुविधा-सेवा को सुदृढ़ बनाया जा सकेगा।


डॉ. हनुमान गालवा

Friday, 12 July 2013

लाइक्स पर राजनीति

- डॉ. हनुमान गालवा
लाइक्स खरीदकर लायक बनने की तारीफ हो रही है या लाइक्स नहीं खरीद पाने की अपनी ना-लायकी को कोसा जा रहा है। जो आरोप लगा रहे हैं, वे भी जानते हैं और जिन पर आरोप लगाए जा रहे हैं, वे भी मानते हैं कि राजस्थान की जनता ने किसी के पक्ष में स्पष्ट जनादेश नहीं दिया था। खंडित जनादेश को 'लाइक्सÓ का जुगाड़ करके स्पष्ट जनादेश में कनवर्ट किया गया था। सही मायने में जुगाड़ की यह कलाबाजी ही लोकतंत्र है। जो इसमें निपुण हैं, वे बिना बहुमत के भी सरकार चला लेते हैं। जो अनाड़ी हैं, वे सत्ता के किनारे आकर भी सत्तासुख से वंचित रह जाते हैं। वैसे भी इस समय देश की राजनीति 'लाइक्सÓ की धुरी पर ही घूम रही है। कांग्रेस में मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक जानते हैं कि वे पद पर तभी तक हैं, जब तक उनको मैडम लाइक कर रही हैं। तमाम कांग्रेसी भी उसी को लाइक करते हैं, जिनको मैडम या युवराज लाइक करते हैं। जिसको मैडम या युवराज लाइक करते हैं, उसको कांग्रेस के तमाम लाइक्स की पूर्णाहुति मान ली जाती है। कांग्रेस के लिए लाइक्स दवा है तो भाजपा के लिए यह बीमारी। भाजपा में पीएम इन वेटिंग नए दावेदार को अनलाइक करते हैं तो नए दावेदार अपने सिवाय किसी को लाइक नहीं करते। एनडीए के प्रमुख घटक जदयू ने भाजपा को महज इसलिए अनलाइक कर दिया कि भाजपा ने प्रधानमंत्री के नए दावेदार को लाइक कर दिया। लाइक-अनलाइक के पेच में उलझी भाजपा के रणनीतिकारों को प्रधानमंत्री की दावेदारी के मायाजाल से बाहर निकलने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। ऐसे में भाजपा की इस बला को कांग्रेस शासित राज्य का कोई मुख्यमंत्री खरीद रहा है तो भाजपा नेताओं को तो खुश होना चाहिए। अलबता कांग्रेस को इस मुद्दे पर जरूर कठघरे में खड़ा किया जा सकता है कि लाइक्स खरीदने ही थे तो अपने ही देश में खरीद लेते हैं। यहां जब सभी बिकाऊ हैं तो फिर विदेशियों से लाइक्स खरीदकर बिकने की अपनी क्षमता पर सवाल क्यों खड़ा किया?


न्यूज टुडे जयपुर के 12 जुलाई के अंक में प्रकाशित व्यंग्यhttp://newstoday.epapr.in/135116/Newstoday-Jaipur/12-07-2013#page/5/1
 

Thursday, 11 July 2013

जीमने का अधिकार

- डॉ. हनुमान गालवा
राइट टू फूड यानी जीमने का अधिकार। पहली बात तो जब बिना कानून ही सभी बेशर्मी से जीम रहे हैं तो फिर इसके लिए कानून बनाने की जरूरत क्यों? दूसरी बात, कानून बन भी गया तो क्या जीमने के बाद डकार लेने के लिए अलग से कानून नहीं बनाना पड़ेगा? तीसरी बात, क्या जीमने में चाटने का अधिकार निहित होगा या यह छूट केवल सत्ता के खिलाडिय़ों को ही मिलेगी? चौथी बात, यह भी तय करना होगा कि चाटकर डकार लेंगे या डकार लेकर चाटेंगे। पांचवी बात, नेताओं का तो हाजमा ठीक है, लेकिन आम आदमी का हाजमा ठीक करने के लिए एक कानून बनाना पड़ेगा। आधार की तर्ज पर हाजमे का भी एक कार्ड बनाया जा सकता है। यह प्रावधान भी हो सकता है कि जिसका हाजमा ठीक होगा, केवल उसी को यह हक मिलेगा। सर्व शिक्षा अभियान की तर्ज पर हाजमे को लेकर भी देशव्यापी अभियान चलाया जा सकता है। सर्वे करवाया जा सकता है कि कर्मचारियों का हाजमा ज्यादा ठीक है या नेताओं या फिर मतदाताओं का? सर्वे निष्कर्षों की समीक्षा के आधार पर आंकड़ों की कलाबाजी से समाजवाद लाने का काम योजना आयोग को सौंपा जा सकता है। योजना आयोग हाजमे के अनुरूप जीमने के अधिकार का वर्गीकरण कर सकता है। वैसे भी प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए राजीव गांधी ने स्वीकारा था कि केन्द्र एक रुपया भेजता है तो लोग 85 पैसे बीच में ही जीम जाते हैं। उनके बेटे राहुल गांधी के हिसाब से लोगों की खुराक बढ़ी है। यह भी तय होना है कि खुराक के अनुसार जीमने की व्यवस्था हो या व्यवस्था में पहुंच के आधार पर जीमने का अधिकार मिले। यह भी विचारणीय है कि जो जीम गए और डकार भी नहीं ली, क्या उनको इस मुहिम का ब्रांड एंबेसेडर बनाया जाए या ब्रांड एंबेसेडर के लिए आईपीएल की तर्ज पर जीमने की राष्ट्रीय प्रतियोगिता आयोजित करवाई जाए? जिस गठबंधन को जीमने का जनादेश मिला हुआ है, लिहाजा फिक्सिंग की छूट भी उसी को मिलनी चाहिए।

न्यूज टुडे, जयपुर में 24 जून, 2013 को प्रकाशित व्यंग्यhttp://newstoday.epapr.in/128438/Newstoday-Jaipur/24-06-2013#page/5/1

Tuesday, 18 June 2013

सरकार का गुस्सा