राजस्थान में शिक्षा सहयोगियों की भर्ती के
परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक सरकार के अलोकतांत्रिक आचरण को समझा जा सकता
है। यह एक ऎसी भर्ती है, जिसमें आवेदन से लेकर चयन तक की प्रक्रिया पर ऎसे
कई सवाल खड़े हैं, जो इसकी निष्पक्षता को चुनौती देते हैं। ताजा हालात को
देखते हुए लगता है कि पहले से सब कुछ तय है।
ऎसे में भर्ती की
नौटंकी क्यों? यह कवायद सिर्फ इसलिए की जा रही है, ताकि उनकी राह में कोई
कानूनी अड़चन नहीं आए। इस भर्ती और अतिक्रमणों के नियमन में कोई फर्क नहीं
है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो आजकल सरकारी नौकरियों में ज्यादातर
भर्तियां इसी तर्ज पर होने लगी हंै।
पहले मनमाने तरीके से बिना
किसी मानदंड के अस्थाई रखा जाता है। जब अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़
जाती है, तब चुनावी फायदे के लिए सरकार एक ही फरमान से सभी को स्थाई नौकरी
का तोहफा दे देती है या फिर इस राह में कानूनी बाधा आने पर उसे आसान बनाने
के लिए नियम-कायदों को ही बदल डालती है।
सरकार की इसी कोशिश में
सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापकों के तीन संवर्ग बन गए हैं। पहला
संवर्ग तो उन अध्यापकों का है, जो प्रतियोगी परीक्षा के जरिए चयनित होकर
मैरिट से लगे हैं। दूसरा संवर्ग उनका है, जो स्थानीय राजनीतिक एप्रोच से
पैराटीचर के रूप में लगे थे और जिनको स्थाई करने के लिए सरकार को प्रबोधक
पद सृजित करना पड़ा। तीसरा संवर्ग अब शिक्षा सहयोगियों का बनने जा रहा है,
जो विद्यार्थी मित्र के रूप में पूर्णया अस्थाई रूप से शिक्षकों के रिक्त
पदों पर लगाए गए थे।
इस तरह की भर्तियों में पदनाम बदलकर सरकार
कानूनी प्रावधानों का भी तोड़ निकाल लेती है। गत दिनों एक सरकारी
विश्वविद्यालय में चपरासी के सात पदों के लिए पूरे प्रदेश से आशार्थियों को
बुलाया गया। पूरे तीन दिन साक्षात्कार की नौटंकी हुई और परिणाम फिक्स था।
यानी पहले से अस्थाई लगे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को स्थाई करने की कवायद
में सैकड़ों आशार्थियों को बेवजह परेशान होना पड़ा। राजस्थान प्रशासनिक
सेवा की एक चर्चित भर्ती का उदाहरण यहां समीचन होगा। उस समय आरपीएससी ने
आरएएस के एक पद के लिए आवेदन मांगे और हायर सैकंडरी उत्तीüण अभ्यर्थियों को
भी आवेदन के लिए विशेष छूट दी गई। पूरे प्रदेश से बड़ी तादाद में आवेदन
आए।
लिखित परीक्षा हुई और साक्षात्कार की भी रस्म अदायगी हुई।
परिणाम आया, तब लोगों को पता लगा कि यह भर्ती तत्कालीन मुख्यमंत्री के नोन
ग्रेजुएट दामाद को आरएसएस अफसर बनाने की तिकड़म थी। कहने का तात्पर्य यह है
कि प्रतिभाओं को दरकिनार करने के लिए सरकार खुद व्यवस्था को तोड़ने लगेगी,
तो व्यवस्था के प्रति आम आदमी का भरोसा कैसे कायम रह पाएगा। यह स्थिति
न्याय आधारित व्यवस्था को झुठलाती है। तिकड़म और मनमानी को किसी रूप में
प्रश्रय व्यवस्था को नाकारा ही बनाएगा। ऎसी स्थिति व्यवस्था को अराजकता की
ओर धकेलती है।
सरकार की भर्ती और नियमन प्रक्रिया में कथनी और करनी
का भेद साफ दिखता है। सरकार में बैठे लोग वादा तो व्यवस्था को पारदर्शी और
जवाबदेह बनाने का करते हैं, लेकिन व्यवहार में तंत्र को अपने हिसाब से
हांकते दिखते हैं। सरकार अपनी आवासीय योजना में मकान या भूखंड के उन लोगों
से तमाम करों सहित पूरे दाम वसूलती है, जो नियमानुसार आवेदन करते हैं, कर
चुकाते हैं और व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखते हैं। समय-समय पर चुनावी ताकत
का एहसास कराने वाले कर्मचारी वर्ग को सरकार कुछ छूट देती है।
सरकार को धौंस दिखाने वालों को आधी छूट दी जाती है, लेकिन उन लोगों को पूरी
छूट दी जाती है, जो कानून-कायदे को ताक में रखकर सरकारी जमीन पर अतिक्रमण
करके काबिज होते हैं। इसी तरह बिजली-पानी के कनेक्शन के लिए विभागीय
मानदंडों को पूरा करने वाले दर-दर की ठोकरे खाते फिरते हैं, जबकि चोरीवाड़े
से लिए गए कनेक्शन को सरकार नियमित कर देती है। यही आलम सरकार की ऋण
योजनाओं का है। जो किसान समय पर कर्ज चुकता करता है, उसे कोई छूट नहीं
मिलती है। जो कर्ज नहीं चुकाते हैं, वे मजे में रहते हैं, क्योंकि सरकार
एकमुश्त कर्ज माफी की घोषणा कर देती है। पग-पग में तंत्र साहूकार को चोर
साबित करता और चोर का साथ देता दिखता है।
व्यवस्था के प्रति निष्ठा
रखने वालों को प्रताड़ना और व्यवस्था को धता बताने वालों को किसी रूप में
दुलार समूची व्यवस्था को ही विकृत बना देता है। हालांकि भर्तियों को
निष्पक्ष बनाने की कई बार कोशिश भी हुई और उन प्रयासों के सार्थक परिणाम भी
परिलक्षित होने लगे, लेकिन राजनीतिक तिकड़बाजों को रास नहीं आने से सुधार
की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई। पूर्ववती भाजपा सरकार के थर्ड ग्रेड टीचर
की भर्ती आरपीएससी से करवाने के निर्णय को उलटकर वर्तमान सरकार ने यह काम
पुन: जिला परिषदों के हवाले कर दिया। साक्षात्कार बंद करके पुलिस भर्ती में
मनमानी रोकने के प्रयास हुए, लेकिन अन्य भर्ती परीक्षाओं की साक्षात्कार
प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाने के कोई प्रयास नहीं हुए।
सरकार केवल
साक्षात्कार प्रक्रिया को कैमरे में कैद करवाने की ही अनिवार्यता कर दे, तो
बाकी काम तो सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से खुद अभ्यर्थी कर देंगे। सुधार
नहीं हुआ तो लोगों का व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ेगा, जिसे रोक पाना
मुश्किल होगा। भर्तियों को निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं बनाया गया, तो
सरकारी नौकरियों में तिकड़मबाजों का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा। यह स्थिति न
तो सरकार के लिए ठीक होगी और न ही इससे नागरिक सुविधा-सेवा को सुदृढ़
बनाया जा सकेगा।
डॉ. हनुमान गालवा
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