Thursday, 11 July 2013

जीमने का अधिकार

- डॉ. हनुमान गालवा
राइट टू फूड यानी जीमने का अधिकार। पहली बात तो जब बिना कानून ही सभी बेशर्मी से जीम रहे हैं तो फिर इसके लिए कानून बनाने की जरूरत क्यों? दूसरी बात, कानून बन भी गया तो क्या जीमने के बाद डकार लेने के लिए अलग से कानून नहीं बनाना पड़ेगा? तीसरी बात, क्या जीमने में चाटने का अधिकार निहित होगा या यह छूट केवल सत्ता के खिलाडिय़ों को ही मिलेगी? चौथी बात, यह भी तय करना होगा कि चाटकर डकार लेंगे या डकार लेकर चाटेंगे। पांचवी बात, नेताओं का तो हाजमा ठीक है, लेकिन आम आदमी का हाजमा ठीक करने के लिए एक कानून बनाना पड़ेगा। आधार की तर्ज पर हाजमे का भी एक कार्ड बनाया जा सकता है। यह प्रावधान भी हो सकता है कि जिसका हाजमा ठीक होगा, केवल उसी को यह हक मिलेगा। सर्व शिक्षा अभियान की तर्ज पर हाजमे को लेकर भी देशव्यापी अभियान चलाया जा सकता है। सर्वे करवाया जा सकता है कि कर्मचारियों का हाजमा ज्यादा ठीक है या नेताओं या फिर मतदाताओं का? सर्वे निष्कर्षों की समीक्षा के आधार पर आंकड़ों की कलाबाजी से समाजवाद लाने का काम योजना आयोग को सौंपा जा सकता है। योजना आयोग हाजमे के अनुरूप जीमने के अधिकार का वर्गीकरण कर सकता है। वैसे भी प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए राजीव गांधी ने स्वीकारा था कि केन्द्र एक रुपया भेजता है तो लोग 85 पैसे बीच में ही जीम जाते हैं। उनके बेटे राहुल गांधी के हिसाब से लोगों की खुराक बढ़ी है। यह भी तय होना है कि खुराक के अनुसार जीमने की व्यवस्था हो या व्यवस्था में पहुंच के आधार पर जीमने का अधिकार मिले। यह भी विचारणीय है कि जो जीम गए और डकार भी नहीं ली, क्या उनको इस मुहिम का ब्रांड एंबेसेडर बनाया जाए या ब्रांड एंबेसेडर के लिए आईपीएल की तर्ज पर जीमने की राष्ट्रीय प्रतियोगिता आयोजित करवाई जाए? जिस गठबंधन को जीमने का जनादेश मिला हुआ है, लिहाजा फिक्सिंग की छूट भी उसी को मिलनी चाहिए।

न्यूज टुडे, जयपुर में 24 जून, 2013 को प्रकाशित व्यंग्यhttp://newstoday.epapr.in/128438/Newstoday-Jaipur/24-06-2013#page/5/1

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