Tuesday, 4 November 2014

अच्छे दिन>>>रेल यात्रियों के अच्छे दिन- डॉ. हनुमान गालवा

रेल यात्रियों के अच्छे दिन
डॉ. हनुमान गालवा
लगता है कि रेल यात्रियों के अच्छे दिन आ गए हैं। जिनके खाते में रेलगाड़ी का टिकिट खरीदने के लिए पर्याप्त बैलेंस नहीं हैं, उनको भी अब चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। रेलगाड़ी का टिकिट खरीदने पर भी आकर्षक ईएमआई पर फाइनेंस उपलब्ध है। आपके खाते में जितने रुपए हों, आप ऑनलाइन रेलवे को अर्पित कर दीजिए, टिकिट की शेष राशि आसान किश्तों में चुकाते रहिए। अब रेलगाड़ी में यात्रा करने के लिए आपको अपने अकाउंट का बैलेंस देखने की जरूरत नहीं है। यानी खाता खाली हो, तब भी टिकिट का बंदोबस्त हो सकता है। जब किश्तों पर टिकिट का बंदोबस्त हो जाए तो स्वाभाविक है कि रेलगाड़ी में आप चैन की नींद सो सकते हैं।
आपकी इस चिंता का बोझ भी रेलवे अपने ऊपर ले रहा है कि गहरी निद्रा में आपका गंतव्य स्टेशन कहीं पीछे नहीं छूट जाए। आपके मोबाइल पर तय समय पर रेलवे अलार्म बजाकर आपको अलर्ट कर देगा कि आपकी गाड़ी निर्धारित समय से पंद्रह मिनट विलंब से गंतव्य स्टेशन पर पहुंचने की संभावना है। इस संभावना के अनुरूप अपनी नींद को विस्तार देकर खर्राटे ले सकेंगे। अब जब रेलगाड़ी का टिकिट खरीदने पर भी फाइनेंस की जरूरत समझी जा रही है तो रेलवे स्टेशन पर चाय पीने या रेलवे कैंटीन में भोजन-नाश्ते के लिए भी आकर्षक किश्तों में फाइनेंस को पीपीपी मॉडल से जन कल्याणकारी बनाया जा सकता है। सरकार चाहे तो रेलवे की उधारी नहीं चुकाने वालों को माफ करके अपनी छवि लोक कल्याणकारी बना सकती है। महंगाई से राहत का यह नायाब नुस्खा रेलवे में कारगर रहे, तो इसे प्राइवेट स्कूल, सब्जी मंडी से लेकर किराना स्टोर तक आजमाया जा सकता है। सरकार चाहे तो इस पर सब्सिडी सीधे खाते में भी जमा करवा सकती है या फिर सीधे फाइनेंस कम्पनियों को भी दी जा सकती है। सरकार चाहे, तो महंगाई से राहत के इन प्रयासों को प्रभावी बनाने के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की राह भी खोल सकती है। विदेशी निवेश यदि स्वदेशी पसंद सरकार को नहीं जच रहा है तो विदेशी बैंकों में जमा स्वदेशी धन के देश में आने तक राहत के फाइनेंस की किश्तें चुकाने से छूट दी जा सकती है। जब काला धन स्वदेश आकर गंगाजल से पवित्र हो जाए तो उससे आम आदमी का बकाया चुका कर स्थाई राहत दी जा सकती है। http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/3768277
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डेली न्यूज में 5 नवंबर, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य— रेल यात्रियों के अच्छे दिन

Wednesday, 6 August 2014

kashmir vivad

सरकारी दस्तावेजों से जम्मू एवं कश्मीर गायब
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जम्मू एवं कश्मीर को समूचा देश भले ही भारत का अभिन्न अंग माने, लेकिन नागौर जिले की मूंडवा पंचायत समिति के सरकारी दस्तावेजों में जम्मू एवं कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। दुखद बात यह है कि अधिकारी इस चूक को भी अपनी मनमानी को जायज ठहराने के लिए कुतर्क के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं।
मूंडवा पंचायत समिति के भटनोखा गांव में आम रास्ते पर सरपंच के अतिक्रमण की जांच में सामने आए 1962 के पट्टों में भारत के मानचित्र से छेड़छाड़ सामने आई है। उल्लेखनीय है कि लोकसभा चुनाव की आचार संहिता के दौरान 8 मार्च, 2014 को भटनोखा गांव में सरपंच परिवार की ओर से आम रास्ता रोक देने की शिकायत पर जिला कलेक्टर ने 11 मार्च, 2014 को जांच के आदेश दिए थे। बीडीओ ने तत्काल निर्माण कार्य रुकवा कर जांच के लिए एक समिति गठित कर दी थी। समिति आम रास्ते के आस-पास के बाड़ों के मालिकों से पट्टे पेश करने को कहा। पट्टे देखकर एकबारगी सभी हैरान रह गए।  ग्राम पंचायत ग्वालू  की ओर से 1962 में जारी किए गए इन पट्टों पर भारत का नक्शा बना बना हुआ है, जिसमें जम्मू एवं कश्मीर का तकरीबन पूरा हिस्सा गायब है। गांव के एक युवक ने अधिकारियों का इस चूक की ओर ध्यान दिलाया तो उस समय तो अधिकारी मुस्कुरा कर रह गए, लेकिन 4 अगस्त, 2014 को  आम रास्ते को ही नकारते हुए कह दिया कि पहले के अधिकारियों को देश के मानचित्र में जम्मू एवं कश्मीर ही नहीं दिखा तो हमें आम रास्ता कैसे दिख सकता है? नाडी, स्कूल तथा श्मशान जाने का आम रास्ता बचाने की कोशिश में जुटे ग्रामीण बीडीओ तथा तहसीलदार कार्यालय जाकर दस्तावेज दिखाकर अनुनय-विनय कर रहे हैं कि सरपंच श्याम सिंह के बाड़े के पूर्व तथा परसराम के पश्चिम में इन्हीं पट्टों में आम रास्ता दर्ज है तो फिर आम रास्ता कहां गया? अधिकारी उनका उपहास उड़ा रहे हैं कि नक्शे में जम्मू-कश्मीर आएगा, तो आपका भी आम रास्ता खुलवा दिया जाएगा।

Wednesday, 30 July 2014

सीता के अच्छे दिन कब आएंगे - डॉ. हनुमान गालवा


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सीता के अच्छे दिन कब आएंगे
- डॉ. हनुमान गालवा

यह अजीब बात है कि सीता के न तो रामराज्य में अच्छे दिन रहे और न ही अच्छे दिनों की सरकार में अच्छे दिन आ पा रहे हैं। अपहरण के बाद सीता के अच्छे दिन लाने के लिए युद्ध हुआ। युद्ध में सीता का अपहरण करने वाले रावण का अंत हुआ, तब उम्मीद जगी कि सीता के अच्छे दिन आने वाले हैं। उस समय सीता के अच्छे दिन लंका विजय के बाद आ गए, लेकिन धोबी को उनके अच्छे दिन रास नहीं आए। धोबी से रामराज्य का प्रमाण पत्र लेने के लिए सीता के अच्छे दिनों को कुर्बान कर दिया गया।
अब चुनाव से अच्छे दिनों की सरकार निकली, तो फिर उम्मीद जगी कि सभी के अच्छे दिन आएंगे तो सीता यानी हर बाला भी अच्छे दिनों से वंचित नहीं रहेगी। रामनाम जपते-जपते सत्ता का सत्तू खाते-खाते डकार लेने लगे कि रामराज्य में ही सीता के अच्छे दिन नहीं रहे, तो हम उनके अच्छे दिन कैसे ला सकते हैं। राम और कृष्ण की जन्मभूमि पर शासन करने वाले यदुवंशी शासक भी हाथ खड़े करने लगे हैं कि भगवान भी 'दुष्कर्मलीलाÓ नहीं रोक सकते हैं। उस जमाने में तो एक रावण था, लेकिन अब तो हर गली-कूचे में रावण घात लगाए बैठा है।  घर, बस, ट्रेन, स्कूल, कॉलेज या दफ्तर में रावण कब-किसके डील आ जाए, किसी को पता नहीं चलता। उस रावण के तो केवल दस सिर थे, लेकिन अब रावण चाहे जिसके सिर में जब चाहे प्रविष्ट हो सकता है। चाहे जिसके सिर में प्रकट होने की विशिष्टता का लिंक चुनावी राजनीति से सीधे जुड़ जाने से रावण का मुकाबला करते-करते राजनेताओं के सिर में भी रावण का वायरस घुस जाता है। मायावी रावण का हाईटैक वर्जन उस रावण से कई गुना ज्यादा खतरनाक और मायावी है। अच्छे दिनों की सरकार में बैठे लोग इस उधेड़बुन में है कि लोगों के अच्छे दिन लाएं या फिर खुद के अच्छे दिन बचाएं। गुणीजन कह रहे हैं कि धोबी को रामराज्य का अहसास करने के लिए प्रभु भी सीता के अच्छे दिन कुर्बान करने से नहीं हिचके तो राम नाम के सहारे अच्छे दिनों तक पहुंचने वाले अपने अच्छे दिनों के लिए दूसरों के अच्छे दिनों को कुर्बान क्यों नहीं करें? सीता रामराज्य में भी ठगा हुआ महसूस कर रही थी और लोकशाही में भी ठगा हुआ महससू कर रही है कि उसके अच्छे दिनों से किसी को क्या पीड़ा? अब देखना यह है कि अच्छे दिनों की सरकार रामराज्य को किसके अच्छे दिनों की कुर्बानी से प्रमाणित करती है।
डेली न्यूज में 29 जुलाई 2014 को प्रकाशित व्यंग्य

Sunday, 6 July 2014

नवाचार से परहेज क्यों

डेली न्यूज, जयपुर में 21 जून, 2014 को प्रकाशित टिप्पणी - नवाचार से परहेज क्यों
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अच्छे दिनों का अलार्म

डेली न्यूज जयपुर में 26 जून, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य- बज गया अच्छे दिनों का अलार्म
http://t.co/Luz8s6uZyO

लापता विमान और सीबीआई

न्यूज टुडे, जयपुर में 2 जुलाई, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य - लापता विमान और सीबीआई
http://t.co/bNZTpQ1zgY

किस करवट बैठेगा ऊंट डॉ. हनुमान गालवा

किस करवट बैठेगा ऊंट
डॉ. हनुमान गालवा
सरकारीकरण के बाद ऊंट समझ नहीं पा रहा है कि उसके अच्छे दिन आने वाले हैं या फिर उसके जैसे-तैसे दिनों की भी विदाई का यह सरकारी घोषणा पत्र है। सरकारीकरण के बाद ऊंट अब किस करवट बैठेगा? करवट को लेकर कयास अपनी जगह है, लेकिन ऊंट की सरकारीकरण के बाद चिंता बढ़ गई है कि यह करवट बचेगी भी या नहीं? उसकी यह चिंता निराधार इसलिए भी नहीं है, क्योंकि गोडावण राज्यपक्षी घोषित होने के बाद दहाई में सिमट चुका है। राज्यपशु चिंकारा चौकड़ी भर रहा है, लेकिन राज्य पुष्प रोहिड़े का फूल दूरबीन से ढूंढऩे पर भी भाग्यशाली को ही दिख पाता है। राज्य पेड़ खेजड़ी अपने गौरवशाली अतीत को याद करके रो रही है तो पीने के पानी की सरकारी पाइप लाइन से वीरान हुआ पनघट विलाप करने को विवश है। सरकारीकरण के चलते शहर भी दैत्य बन गए और गांवों को गटकते जा रहे हैं। चिंता का एक कारण यह भी है कि क्या ऊंट को अब सरकार बदलने के साथ बदलनी पड़ेगी या फिर उसे अपने हिसाब से करवट बदलने की आजादी बरकरार रहेगी?
करवट तो केवल गठबंधन सरकार में बदली जा सकती है। प्रचंड बहुमत की सरकार में तो करवट बदलने की आहट मात्र से अपनों को भी अपने पलक झपकते ही खंडहर में तब्दील कर देते हैं, धरोहर घोषित कर देते हैं। ऐसे में सरकार बदलने के साथ ऊंट भी अपनी करवट बदलने लगेगा तो फिर वह ऊंट कैसे रह पाएगा? उसका 'ऊंटपनाÓ ही जाता रहेगा तो फिर तो ऊंट और सत्ता के रंग में रंग जाने वाले नौकरशाह में फर्क ही क्या रह जाएगा? जब ऊंट की करवट का सरकारीकरण हो जाएगा तो फिर कोई भी बता सकता है कि ऊंट किस करवट बैठेगा या किस करवट बैठने वाला है? इससे एक फायदा जरूर होगा कि ऊंट की करवट के रुख को देखकर यह अंदाज आसानी से लगाया जा सकेगा कि चुनाव में सरकार बचेगी या वीरगति को प्राप्त होगी? एग्जिटपोल में भी ऊंट की करवट को शामिल करके उसे विश्वसनीय बनाया जा सकता है कि ऊंट करवट बदल रहा है यानी सरकार के पक्ष में जनादेश नहीं है...ऊंट के करवट बदलने का मन नहीं बनाने का मलतब है कि सरकार की सुरक्षित वापसी तय है। ऊंट की करवट के विशेषज्ञों का पैनल भी तैयार किया जा सकता है, जो टीवी चैनलों पर लाइव बहस में करवट की व्याख्या कर अपनी निष्ठा को करवट से पुष्ट कर सके।

डेली न्यूज, जयपुर में 7 जुलाई, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य - किस करवट बैठेगा ऊंट  
http://t.co/Yi8oz72kkC

Wednesday, 18 June 2014

पिटने वाले की तलाश - डॉ. हनुमान गालवा

पिटने वाले की तलाश
 - डॉ. हनुमान गालवा
सामंतशाही के एक किस्से का लोकशाही में रुपांतरण करके पिटी हुई पार्टी
अपने युवराज को पिटने से बचा सकती है। आज के युवराज की तरह ही रियासतीकाल
में भी युवराजों की गलती अपने सिर लेकर लाज बचाने की हमारी समृद्ध
परिपाटी रही है। राजशाही चली गई। सामंतशाही सिमट गई, लेकिन लोकशाही में
भी लाच बचाने की इस परिपाटी का बखूबी निर्वाह किया जाता रहा है। उन दिनों
अजमेर के एक प्रतिष्ठत स्कूल में केवल राजा-महाराजा और ठिकानेदारों के ही
राजकुमार पढ़ते थे। शेखावटी के एक ठिकानेदार के राजकुमार को दाखिला तो
मिल गया, लेकिन पढ़ाई में कमजोर होने के कारण रोज पिटना पड़ता था। बात
ठिकानेदार तक पहुंची। चिंतन-मनन हुआ और राजकुमार को पिटने से बचाने की
रणनीति तय हुई। तय रणनीति के मुताबिक एक बच्चे का चयन किया गया। उसे
अजमेर के उस प्रतिष्ठित स्कूल में ले जाया गया। स्कूल प्रबंधन ने दाखिला
देने से पहले पूछताछ की तो बताया गया कि यह बच्चा पढऩे के लिए नहीं आया
है। यह आपके स्कूल में रहेगा। अमुक ठिकाने के राजकुमार कोई गलती करे तो
उसे पीटने के बजाय इसकी पिटाई कर दीजिए। गलती की सजा तो मिलनी ही चाहिए
ना! सजा को रोका या कम नहीं किया जा सकता है, लेकिन सजा कोई और भुगत ले
तो दोषी को राहत दी जा सकती है। उस समय तो पिटने के लिए आए बच्चे को लेकर
आने वालों को डांट-डपट कर रवाना कर दिया, लेकिन लोकशाही में युवराज के
बदले पिटने वाले चेहरे की तलाश की जा रही है। हालांकि हर बार युवराज का
गलती को अपने सिर लेने की हौड़ मची रहती है, लेकिन इस बार हालात कुछ
ज्यादा ही खस्ता होने से अदने से कार्यकर्ता भी आंख दिखाने लगे हैं।
हालांकि आंख दिखाने वालों को बाहर का रास्ता दिखाकर कड़ा संदेश दिया गया,
लेकिन इससे भी बात बन नहीं रही है। असंतुष्टों का दुस्साहस केवल आंख
दिखाने तक ही सीमित नहीं है। वे सीधे-सीधे आलाकमान की कॉलर खींचने लगे
हैं। युवराज को ललकारने लगे हैं। युवराज के गुरु भी नालायक निकले। युवराज
को दुल्हा बनाते-बनाते खुद ही दुल्हा बन बैठे। किसकी नीयत कब खराब हो
जाए? इसे आंकने या मापने का कोई पैरामीटर नहीं है। अन्यथा, नीयत का भी
पूर्वानुमान लगाकर डैमेज एंड कंट्रोल संभव है। नीयत का पता लगाने का कोई
यंत्र भले ही नहीं बना हो, लेकिन युवराज के दोष अपने सिर लेने वाले की
तलाश और चयन के लिए लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी चयन से कोई अलग दूसरा
फार्मूला ईजाद किया जा सकता है। दूसरा फार्मूला इसलिए जरूरी है, क्योंकि
पहले के तमाम फार्मूले पिट चुके हैं। अब यदि युवराज के बदले पिटने वाले
के चयन में भी कोई चूक रह गई तो युवराज को पिटने से कोई नहीं बचा सकेगा।
कोई उपाय नहीं हो तो राज घरानों में रोधूली (रोने वाली) की आउटसोर्सिंग
की तर्ज पर पिटने वाले की आउटसोर्सिंग की जा सकती है। पिटने की
चैम्पियनशिप भी आयोजित करवाई जा सकती है। 'पिटोकड़ा शिरोमणीÓ का नया पद
सृजित कर युवराज को पिटने से बचाने की स्थाई व्यवस्था की जा सकती है।
न्यूज टुडे, जयपुर में 18 जून, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य
http://epaper.newstodaypost.com/290352/News-TodayJaipur/18-06-2014#page/5/2
 

Thursday, 24 April 2014

पीएम के भाषण का गुणा-भाग - डॉ. हनुमान गालवा


http://dailynewsnetwork.epapr.in/262260/Daily-news/24-04-2014#page/7/1

पीएम के भाषण का गुणा-भाग
- डॉ. हनुमान गालवा
हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दस साल में एक हजार भाषण दिए। गणितीय गणना के हिसाब से प्रधानमंत्री ने औसतन हर तीसरे दिन में एक भाषण दिया। इन भाषणों से देश को कोई फायदा हुआ या नहीं, लेकिन गणित को इन भाषणों से रुचिकर बनाया जा सकता है। मनमोहन सिंह गणित के प्रति बच्चों में बढ़ती अरुचि को लेकर प्रधानमंत्री रहते हुए चिंतित रहे। अपनी इस चिंता को गणित दिवस पर हर साल 22 दिसंबर को अपने भाषण में भी प्रकट करते है। वर्ष 2012 को गणित वर्ष और श्रीनिवास रामानुज की जयंती को राष्ट्रीय गणित दिवस के रूप में मनाने की उपलब्धि भी निर्विवाद रूप से उनके ही खाते में दर्ज है। लिहाजा गणित को रुचिकर बनाने की चिंता का गुणा-भाग किया जा सकता है। अपने कार्यकाल में अब तक दिए गए कुल एक हजार भाषणों में चार भाषण (गणित दिवस की एक घोषणा तथा गणित दिवस पर तीन उद्बोधन) गणित को रुचिकर बनाने की चिंता पर केन्द्रित रहे। प्रधानमंत्री के भाषणों के चिंतन से गणित की चिंता को विश्लेषित किया जाए तो चिंता का 0.4 प्रतिशत हिस्सा गणित को रुचिकर बनाने के हिस्से में आता है। उनकी चिंता का निदान भी उनकी भाषण में मिलता है। यह अचरज की बात है कि इस ओर अभी तक किसी का ध्यान क्यों नहीं गया। खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। बच्चों को जोड़, बाकी, गुणा, भाग, औसत और प्रतिशत इन भाषणों से सिखाकर गणित को रुचिकर बनाया जा सकता है। मसलन, कुछ सवाल तैयार किए गए जा सकते हैं। हमारे प्रधानमंत्री ने दस साल में एक हजार भाषण दिए। बताइए, दस साल में स्वाधीनता दिवस पर दिए गए भाषण निकाल दिए जाएं तो शेष कितने रहेंगे? हर तीसरे दिन में प्रधानमंत्री एक भाषण देते हैं तो बताई बताइए 1200 भाषण पूरे करने के लिए उनका कार्यकाल कितना बढ़ाना पड़ेगा? महंगाई पर संसद में दिए उनके 12 बार दिए गए जवाब को भी इन भाषणों में जोड़ दिया जाए तो बताइए उन्होंने प्रतिदिन कितने भाषण दिए? प्रत्येक भाषण औसतन 45 मिनट का माना जाए तो बताइए उन्होंने कुल कितना भाषण दिया? कुल भाषण को दिन, सप्ताह और साल में बदलकर बताइए? माना कि हर भाषण में औसतन उन्होंने सोनिया गांधी के नाम का तीन बार उल्लेख किया तो बताइए उन्होंने अपने इन हजार भाषणोंं में सोनिया गांधी का कितनी बार नाम लिया? माना कि अमेरिका के राष्ट्रपति एक दिन में तीन और हमारे प्रधानमंत्री तीन दिन में एक भाषण देते हैं तो बताइए दस दिन में अमेरिकी राष्ट्रपति के बराबर आने के लिए हमारे प्रधानमंत्री को अपने औसतन भाषण से कितने ज्यादा देने पड़ेंगे?

डेली न्यूज, जयपुर में 24 अप्रेल, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य

Sunday, 20 April 2014

नाक पर मुक्का और अहिंसा - डॉ. हनुमान गालवा

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नाक पर मुक्का और अहिंसा
 - डॉ. हनुमान गालवा
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कह गए थे कि कोई एक थप्पड़ मारे तो उसके सामने
दूसरा गाल कर दो। उनकी बात ठीक है, मगर कोई नाक पर मुक्का मारे तो क्या
करें? अहिंसा की ढाल तो वही है, लेकिन हिंसा का प्रकार बदल गया। हिंसा के
आकार-प्रकार के अनुरूप अहिंसा की ढाल में वैल्यू एडीशन की आवश्यकता है।
कोई एक कान खींचे तो उसके सामने दूसरा कान किया जा सकता है। कोई एक आंख
फोड़े तो उसकी आत्मा की शांति के लिए उसके सामने दूसरी आंख की जा सकती
है। कोई एक टांग तोड़े तो उसे कहा जा सकता है कि चल दूसरी भी तोड़ दे। कम
से कम चलने-फिरने के झंझट से तो मुक्ति मिलेगी। कोई एक हाथ मरोड़े तो
उसके सामने दूसरा हाथ किया जा सकता है। बात को जनसभा में नेताओं पर फेंके
जा रहे जूते के संदर्भ में कही जाए तो जूता फेंकने वाले से कहा जा सकता
है कि दूसरा भी फेंक दे। कम से कम जूते की जोड़ी तो सलामत रहेगी। बात कान
खींचने, बांह मरोडऩे, आंख फोडऩे या टांग तोडऩे या जूता फेंकने तक सीमित
होती तो चिंता की कोई बात नहीं। नाक पर मुक्का चलने लगा तब समस्या महंगाई
की तेरह बेकाबू हो गई है। इस समस्या के निदान के लिए करने को अनशन भी
किया जा सकता है और चिंतन-मनन के लिए संगोष्ठी भी आयोजित की जा सकती है।
नाक दो होते तो एक नाक पर मुक्का लगते ही दूसरा नाक आगे करके हिंसा के
प्रहार को अहिंसा की ढाल से थामा जा सकता था, लेकिन आखिर नाक तो एक ही है
ना! अब या तो दूसरी कृत्रिम नाक उगाई जाए या फिर नाक के क्षेत्र को
अहिंसा की परिधि से बाहर रखा जाए। निदान का कोई उपाय नहीं सूझे तो
गांधीजी के बंदरों से मदद ली जा सकती है। गांधीजी के तीन बंदरों में से
एक अपनी आंख बचा रहा है, दूसरा अपने कान बचा रहा है और तीसरा अपना मुंह
बचा रहा है।...ताकि  सरकार की तरह अपनी सुविधा के अनुसार चाहे तब देख सके
और चाहे तब आंख मूंद सके।  उनके पास एक चौथे बंदर को भी प्रतिष्ठित किया
जा सकता है, जो नाक पर हाथ रखकर नाक की सलामती का संदेश दे सके। कान भी
जीतने  पर खोलकर विजय का सिंहनाद सुन सके और हारने पर कान बंद करके हारकर
भी जीत का आनंद अनूभूत कर सके। मुंह का बचा रहना भी इसलिए जरूरी है,ताकि
सत्ता मिलने पर जी भरकर खाया जा सके। नाक की हिफाजत भी उस पर हाथ रखकर की
जानी चाहिए, ताकि सूंघकर पता लगाया जा सके कि घोटाले का प्रसाद खुद खाए
या फिर जनता को भी कुछ मखाणे बांटे जाएं। हालांकि कहने वाले कह सकते हैं
कि नकटे का नाक तो कटने पर बढ़ता है तो फिर नेताओं की नाक की की सुरक्षा
की क्या जरूरत?
न्यूज टुडे जयपुर में 19 अप्रेल, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य 
https://www.facebook.com/hanuman.galwa   
 

Friday, 18 April 2014

अच्छे दिन आने वाले हैं - डॉ. हनुमान गालवा



http://dailynewsnetwork.epapr.in/259338/Daily-news/18-04-2014#page/8/1

अच्छे दिन के
कुछ उपाय
- डॉ. हनुमान गालवा
अच्छे दिन आने वाले हैं। वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में सब्जियां उगाने की तकनीक विकसित कर ली है। सब्जियों की बाड़ी आसमान में होगी तो सब्जियों के भाव अपने आप जमीन पर जाएंगे। सब्जियों के भाव आसमान नहीं छू सकेंगे। आसमान से धरती पर सब्जियां गिरेंगी, तो भाव की दिशा एकदम उलट जाएगी। भाव नियंत्रण के वैज्ञानिकों के इस आर्थिक दृष्टिकोण सभी के अच्छे दिन का सुखद कोण साबित हो सकता है। सब्जी लाने को श्रीमतीजी कहे तो सब्जी मंडी जाने के बजाय थैला छत पर रखकर कहा जा सकता है कि सब्जियां गिरे तब नीचे ले आना। फिर भी, कोई शिकायत रहे तो कहा जा सकता है कि सब्जियों के लिए आसमान की ओर छलांग लगाने से तो रहा। प्रेमिका कहे तो फिर आसमान से सब्जी तोड़कर लाने या छलांग लगाने में से एक विकल्प चुनना पड़ेगा। आसमान में सब्जियों की खेती से सरकार भी फील गुड कर सकती है। सब्जियों के लिए आसमान में खेत काटे जा सकते हैं। सब्सिडी बांटी जा सकती है।
सब्जियों का समर्थन मूल्य भी घोषित किया जा सकता है, ताकि ऊंचे दामों पर खरीदकर सस्ते में बेचकर सरकार अपना और अपनों का कल्याण कर सके। कालाधन वापस लाने में भी यह विधि कारगर है। इससे कालाधन भी वापस सकता है और कालेधन वालों के भी अच्छे दिन आ सकते हैं। चूंकि खेती पर कोई कर नहीं लगता है। लिहाजा नेताओं और उद्योगपतियों को सब्जियां उगाने के लिए रियासती दरों पर हवाई खेत अलॉट किए जा सकते हैं। अघोषित आय को आसमान में उगाई सब्जियों से अर्जित आय बताकर धन के कालेपन को उजाला जा सकता है। वायदा कारोबार और सट्टा बाजार की मंडिया भी आसमान में विकसित की जा सकती है, ताकि सटोरियों के भी अच्छे दिन आ सकें। आसमान में चौथ वसूली चौकियां स्थापित कर खाकी के भी अच्छे दिन लाए जा सकते हैं। हवाई सर्वेक्षण में माहिर सर्वे कम्पनियों से आसमान मेें खेती की संभावना पर सर्वे करवाया जा सकता है। इन सर्वे के आधार पर संभावनाओं के दोहन के लिए एग्रीकल्चर रिसर्च संस्थानों के हवाई शोध केन्द्र स्थापित किए जा सकते हैं, जिससे कृषि वैज्ञानिक भी महसूस कर सकें कि उनकी अच्छे दिन आने वाले हैं। अच्छे दिन लाने के प्रयासों की हवाई ऑडिट से इन उम्मीदों को एक ठोस आधार प्रदान किया जा सकता है कि अच्छे दिन आने वाले हैं।
डेली न्यूज, जयपुर
पेज- 6, दिनांक 18 अप्रेल, 2014




Tuesday, 15 April 2014

राह दिखाता नया मॉडल - डॉ. हनुमान गालवा

न्यूज टुडे, जयपुर में 15 अप्रेल, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य- राह दिखाता नया मॉडल
http://epaper.newstodaypost.com/257926/Newstoday-Jaipur/15-04-2014#page/5/2
राह दिखाता नया मॉडल
 - डॉ. हनुमान गालवा
चुनावी मंथन में प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार के विवाह का खाना भर
गया। अब वे कुंआरे नहीं रहे। कुंआरे तो वे पहले भी नहीं थे, लेकिन एक
भ्रम बना हुआ था कि उनको अविवाहित माना जाए या विवाहित? वैवाहिक स्थिति
का कॉलम खाली छोड़ते रहने से यह भ्रम गहराता जा रहा था। इस गहराते भ्रम
के बीच उनके कुंआरेपन का कोहरा छंटने के साथ ही एक पतिव्रत्ता के सिंदूर
को सम्मान मिल गया। इस सम्मान के सांस्कृतिक विमर्श पर चिंतन-मनन किया जा
सकता है। गुजरात के विकास मॉडल की तर्ज पर इसे भी एक विवाह मॉडल के रूप
में आगे बढ़ाया और भुनाया जा सकता है। पार्टी चाहे तो इस पर अपना
दृष्टिकोण पत्र पर भी जारी कर सकती है या केवल घोषणा से भी काम चलाया जा
सकता है। खैर, उनकी पार्टी इसे भुनाए या नहीं, लेकिन घोटालों के सरदार की
पार्टी के कुंआरे युवराज ने इसे चुनावी मुद्दा बना लिया। खबरिया चैनलों
को चर्चा के लिए मसाला मिल गया, जिससे कई फ्लेवर में चटनी तैयार करके
टीआरपी का तड़का लगाया जा सकता है। इसे सुखद आश्चर्य माना जा सकता है कि
'गे मैरिजÓ की पैरवी के इस दौर विवाह की चर्चा राष्ट्रव्यापी बहस का रूप
लेती जा रही है। इसके विविध आयामों पर चर्चा हो रही है। इस बहस को खबरिया
चैनल एक सार्थक दिशा दे सकते हैं। मसलन, इस पर रायशुमारी भी करवाई जा
सकती है कि अब पति स्वरूप स्वीकारने के बाद राजनीति की लीला को विराम
देकर पत्नी सेवा करनी चाहिए या फिर इस स्वीकारोक्ति को ही पत्नी की
संतुष्टि मानते हुए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर टॉवल बिछाने के बाद ही
अश्वमेज्ञ यज्ञ की पूर्णाहुति मानी जानी चाहिए। राष्ट्रपति पद को सुशोभित
करने वाली पहली महिला ने अपने नाम के साथ पति का नाम जोड़कर पति का
सम्मान बढ़ाया। उससे पहले राजस्थान की महामहिम भी रहीं, लेकिन उनके नाम
में पतिनाम का कहीं कोई प्रभाव नहीं दिखा। खैर, पतिदेवता की प्राण
प्रतिष्ठा हो सकती है तो पत्नी को सम्मान देकर समानता की नई मिसाल पेश
क्यों नहीं की जानी चाहिए? लिहाजा इस दिशा में भी सोचा जा सकता है कि
प्रधानमंत्री बनने पर अपने नाम के साथ पत्नी का नाम भी जोड़कर भारतीय
संस्कृति का नया अध्याय क्यों नहीं लिखा जा सकता है? वैसे भी घर छोड़कर
संन्यास लेने पर नया नाम देने की परम्परा रही है तो संन्यास से फिर
गृहस्थी बनने पर भी नया नाम क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? नया नाम हो सकता
है- जसोदाबेनपति नरेन्द्र मोदी। इसे सुविधा के हिसाब से लघु भी किया जा
सकता है। मसलन, अंग्रेजी में लिखना हो तो जे.बी.पी.एन. मोदी लिखा जा सकता
है। और इसे संघदृष्टि से भी लिखा जा सकता है- ज.बे.प.न. मोदी।

Thursday, 20 February 2014

लो, सुधर गई राजनीति - डॉ. हनुमान गालवा


http://epaper.newstodaypost.com/232180/Newstoday-Jaipur/20-02-2014#page/5/2
लो, सुधर गई राजनीति

 - डॉ. हनुमान गालवा
बात सपने से शुरू हुई और अब फिर सपने पर ही आकर अटक गई। यानी सपने के विकल्प की तलाश सपने से ही शुरू होती है और सपने पर ही आकर खत्म होती है। आम आदमी ने राजनीति को सुधारने का सपना देखा। पहले कहा गया कि अपनी पार्टी बनाओ तो राजनीति सुधरेगी। अपनी पार्टी बना लेने पर भी सुधार नहीं दिखा तो कहा गया कि चुनाव में झाड़ू लगाओ तो सुधार दिखेगा। दिल्ली के मतदाताओं ने यह काम भी बखूबी कर दिखाया तो कहा गया कि आम आदमी की सरकार बनाओ तो सुधार दिखेगा। सरकार भी बन गई, तब भी सुधार नहीं दिखा तो सुधार को प्रकट करने के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी बदलने का टोटका किया। आम आदमी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने से पहले उसे बदलकर हुंकार भरी कि लीजिए सुधर गई राजनीति। लोगों ने नहीं माना तो पूर्व मुख्यमंत्री के खिलाफ जांच बैठाकर राजनीति को सुधार देने का जयघोष किया गया। इस पर पर लोग संतुष्ट नहीं हुए तो आम आदमी से खास बना आदमी पुलिस के खिलाफ धरने पर बैठ गया, तब भी राजनीति में सुधार नहीं दिखे तो कोई क्या कर सकता है? लोग कहने लगे कि धरने-प्रदर्शन से ही राजनीति सुधर जाती तो आपको राजनीति में आने की जरूरत क्यों पड़ती? बात तो ठीक है, लेकिन लोगों की बात भी गलत नहीं कि राजनीति को सुधारने के उनके सपने का क्या हुआ? केन्द्रीय मंत्री और उद्योगपति के खिलाफ मुकदमा कायम कर राजनीति में सुधार की धारणा की प्राण प्रतिष्ठा करने की कोशिश हुई। तब भी लोगों के बात नहीं जची कि राजनीति सुधर गई। आखिर हैरान-परेशान होकर अपनी सरकार गिराकर आम से खास बना आदमी फिर आम आदमी बन गया। अब तो यकीन कर लिया जाना चाहिए कि राजनीति सुधर गई है, लेकिन लोग मानने तो तैयार नहीं। अब भी राजनीति नहीं सुधरी तो फिर सपने देखिए। सपने लगातार देखते रहिए और तब तक देखते रहिए जब तक आपको राजनीति में सुधार दिख न जाए। और यह मत भूलिएगा कि यह सपने देखने भी आम से खास और खास से फिर आम आदमी बने आदमी ने सिखाए। वरना तो देश के लोग सपने देखने ही भूल गए थे। झाड़ू लगाकर साफ-सुथरे सपने देखे जा सकते हैं। अब तो मान जाइए कि राजनीति सुधर गई है। यकीन नहीं हो तो सुधार के सपने में इसे महसूस कर सकते हैं। सपने नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए जनमत संग्रह करवाया जा सकता है कि सपने क्यों नहीं आ रहे हैं। या फिर मतदाताओं के बीच जाकर पूछा जा सकता है कि राजनीति को सुधारने के सपने देखें या नहीं। देखें तो किस तरह के? इन तमाम प्रयासों के बावजूद सपने नहीं देख पा रहे हैं तो ध्यान का भी सहारा लिया जा सकता है। फिर भी सपने नहीं दिख रहे हैं तो आप भी गला फाड़कर कह सकते हैं कि मेरी कोई औकात नहीं है कि मैं सपने भी देख सकूं, क्योंकि मैं बहुत छोटा आम आदमी हूं।
न्यूज टुडे जयपुर में 20 फरवरी, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य

Friday, 24 January 2014

भोजन का अधिकार - डॉ. हनुमान गालवा

पत्रिका इयर बुक -2014 में प्रकाशित आलेख
भोजन का अधिकार - डॉ. हनुमान गालवा

Wednesday, 22 January 2014

डॉ. हनुमान - गालवा मरने को मेड़तिया, राज करने को जोधा

http://epaper.newstodaypost.com/218213/Newstoday-Jaipur/23-01-2014#page/5/1
मरने को मेड़तिया, राज करने को जोधा
 - डॉ. हनुमान गालवा
हाल ही में राजस्थान में सत्ता में वापसी के लिए हाथ मलते रह गई हाथ वाली
पार्टी के हाथ में फिर सत्ता की खुजली चलने लगी है। आशा की तरह यह खुजली
भी राजनीति का अमर धन है। सत्ता से धक्के देकर बाहर निकाले जाने पर भी
सत्ता की खाज मिटती नहीं। खुजली चलती रहती है। इसका उपचार तो केवल और
केवल सत्ता ही है। सत्ता के लिए चलने वाली खुजली सत्ता में आकर ही मिटती
है और सत्ता से आउट होते ही फिर चलने लगती है। नेताओं की यह खुजली अब तो
आम आदमी को भी लगने लग गई। नेताओं को होने वाली खुजली सभी को होने लगेगी
तो देश में सभी अपनी हथेली खुजलाते दिखेंगे। खुजली का स्कोप बढ़ेगा तो
योगगुरु भी खुजली से सत्ता पाने का कोई योग भी सिखा सकते हैं। पहले भी
नाखून रगडऩे से बाल काले करने की कला बताई तो सफेदी को कालिमा में कनवर्ट
करने कोशिश में सभी नाखून रगडऩे लगे। एकबारगी ऐसा लगने लगा, जैसे हर
समस्या के निदान का उपाय नाखून रगडऩे में ही निहित है। फिलहाल, इस बार
सत्ता के मंजे हुए खिलाडिय़ों ने हाथ खड़े कर दिए। नतीजतन सत्ता की खाज
मिटाने के लिए पार्टी की गाड़ी में नए खिलाडिय़ों को जोत दिया गया। पार्टी
की यह दशा देखकर एक युवा नेता से चुप नहीं रहा गया। कहने लगे कि टाबर ही
घर चला लेते तो बाबा को बूढ़ी क्यों लानी पड़ती? बात तो उनकी सोलह आने
खरी है, लेकिन उनको यह कौन समझाए कि राजनीति 'मरने को मेड़तिया, राज करने
को जोधाÓ मंत्र से चलती है। सिस्टम बदलने के नारे में युवराज ने भी साफ
कर दिया कि अब रेस में दौडऩे वाले घोड़ों की जरूरत है। थकते भी दौडऩे
वाले ही हैं। मतलब साफ है कि सरकार चलाने वाले घोड़े अलग होंगे।
रियासतकालीन राजस्थान में भी जंग में मेड़तियों को कमर कसने को कहा जाता
था। घाव भी रणक्षेत्र में जाने वालों के ही लगते। जब गढ़ जीत लिया जाता
था तो राजतिलक के समय बिना घाव वाले सुंदर राजकुमारों को तलाशा जाता। अब
राजकुमार चुनने का तरीका बदला है, लेकिन परिपाटी वही है। पहले भी हाथ
वाली पार्टी के इसी जादूगर को जनता ने अंगूठा बता दिया था, तब जनता की
अंगुली थमकार हाथ पकडऩे के लिए किसान नेता को कमान सौंपी गई थी। उस किसान
नेता ने पार्टी की कमान थामते ही कह दिया कि उसे तो एयरपोर्ट यानी सत्ता
की दहलीज तक बैलगाड़ी हांकनी है।  हेलीकॉप्टर में बैठने यानी सरकार की
कमान संभालने की बारी आएगी, तब कोई दूसरा आएगा। लिहाजा, उसने बुद्धिमानी
से काम लिया। चुनाव में टिकिट दिलवाने और कटवाने की खेती की और अपने
हिस्से की फसल काट ली।  अब युवाओं की बारी है। अब युवा मेड़तिया की
भूमिका तक सीमित रहेंगे या जोधा बनकर राजनीति की परिपाटी को तोड़ेंगे?
वैसे राज पाने और चलाने के लिए मेड़तिया और जोधा दोनों की ही अहमियत है।
न्यूज टुडे जयपुर में 23 जनवरी, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य