Thursday, 20 February 2014

लो, सुधर गई राजनीति - डॉ. हनुमान गालवा


http://epaper.newstodaypost.com/232180/Newstoday-Jaipur/20-02-2014#page/5/2
लो, सुधर गई राजनीति

 - डॉ. हनुमान गालवा
बात सपने से शुरू हुई और अब फिर सपने पर ही आकर अटक गई। यानी सपने के विकल्प की तलाश सपने से ही शुरू होती है और सपने पर ही आकर खत्म होती है। आम आदमी ने राजनीति को सुधारने का सपना देखा। पहले कहा गया कि अपनी पार्टी बनाओ तो राजनीति सुधरेगी। अपनी पार्टी बना लेने पर भी सुधार नहीं दिखा तो कहा गया कि चुनाव में झाड़ू लगाओ तो सुधार दिखेगा। दिल्ली के मतदाताओं ने यह काम भी बखूबी कर दिखाया तो कहा गया कि आम आदमी की सरकार बनाओ तो सुधार दिखेगा। सरकार भी बन गई, तब भी सुधार नहीं दिखा तो सुधार को प्रकट करने के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी बदलने का टोटका किया। आम आदमी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने से पहले उसे बदलकर हुंकार भरी कि लीजिए सुधर गई राजनीति। लोगों ने नहीं माना तो पूर्व मुख्यमंत्री के खिलाफ जांच बैठाकर राजनीति को सुधार देने का जयघोष किया गया। इस पर पर लोग संतुष्ट नहीं हुए तो आम आदमी से खास बना आदमी पुलिस के खिलाफ धरने पर बैठ गया, तब भी राजनीति में सुधार नहीं दिखे तो कोई क्या कर सकता है? लोग कहने लगे कि धरने-प्रदर्शन से ही राजनीति सुधर जाती तो आपको राजनीति में आने की जरूरत क्यों पड़ती? बात तो ठीक है, लेकिन लोगों की बात भी गलत नहीं कि राजनीति को सुधारने के उनके सपने का क्या हुआ? केन्द्रीय मंत्री और उद्योगपति के खिलाफ मुकदमा कायम कर राजनीति में सुधार की धारणा की प्राण प्रतिष्ठा करने की कोशिश हुई। तब भी लोगों के बात नहीं जची कि राजनीति सुधर गई। आखिर हैरान-परेशान होकर अपनी सरकार गिराकर आम से खास बना आदमी फिर आम आदमी बन गया। अब तो यकीन कर लिया जाना चाहिए कि राजनीति सुधर गई है, लेकिन लोग मानने तो तैयार नहीं। अब भी राजनीति नहीं सुधरी तो फिर सपने देखिए। सपने लगातार देखते रहिए और तब तक देखते रहिए जब तक आपको राजनीति में सुधार दिख न जाए। और यह मत भूलिएगा कि यह सपने देखने भी आम से खास और खास से फिर आम आदमी बने आदमी ने सिखाए। वरना तो देश के लोग सपने देखने ही भूल गए थे। झाड़ू लगाकर साफ-सुथरे सपने देखे जा सकते हैं। अब तो मान जाइए कि राजनीति सुधर गई है। यकीन नहीं हो तो सुधार के सपने में इसे महसूस कर सकते हैं। सपने नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए जनमत संग्रह करवाया जा सकता है कि सपने क्यों नहीं आ रहे हैं। या फिर मतदाताओं के बीच जाकर पूछा जा सकता है कि राजनीति को सुधारने के सपने देखें या नहीं। देखें तो किस तरह के? इन तमाम प्रयासों के बावजूद सपने नहीं देख पा रहे हैं तो ध्यान का भी सहारा लिया जा सकता है। फिर भी सपने नहीं दिख रहे हैं तो आप भी गला फाड़कर कह सकते हैं कि मेरी कोई औकात नहीं है कि मैं सपने भी देख सकूं, क्योंकि मैं बहुत छोटा आम आदमी हूं।
न्यूज टुडे जयपुर में 20 फरवरी, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य

No comments:

Post a Comment