Tuesday, 4 November 2014

अच्छे दिन>>>रेल यात्रियों के अच्छे दिन- डॉ. हनुमान गालवा

रेल यात्रियों के अच्छे दिन
डॉ. हनुमान गालवा
लगता है कि रेल यात्रियों के अच्छे दिन आ गए हैं। जिनके खाते में रेलगाड़ी का टिकिट खरीदने के लिए पर्याप्त बैलेंस नहीं हैं, उनको भी अब चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। रेलगाड़ी का टिकिट खरीदने पर भी आकर्षक ईएमआई पर फाइनेंस उपलब्ध है। आपके खाते में जितने रुपए हों, आप ऑनलाइन रेलवे को अर्पित कर दीजिए, टिकिट की शेष राशि आसान किश्तों में चुकाते रहिए। अब रेलगाड़ी में यात्रा करने के लिए आपको अपने अकाउंट का बैलेंस देखने की जरूरत नहीं है। यानी खाता खाली हो, तब भी टिकिट का बंदोबस्त हो सकता है। जब किश्तों पर टिकिट का बंदोबस्त हो जाए तो स्वाभाविक है कि रेलगाड़ी में आप चैन की नींद सो सकते हैं।
आपकी इस चिंता का बोझ भी रेलवे अपने ऊपर ले रहा है कि गहरी निद्रा में आपका गंतव्य स्टेशन कहीं पीछे नहीं छूट जाए। आपके मोबाइल पर तय समय पर रेलवे अलार्म बजाकर आपको अलर्ट कर देगा कि आपकी गाड़ी निर्धारित समय से पंद्रह मिनट विलंब से गंतव्य स्टेशन पर पहुंचने की संभावना है। इस संभावना के अनुरूप अपनी नींद को विस्तार देकर खर्राटे ले सकेंगे। अब जब रेलगाड़ी का टिकिट खरीदने पर भी फाइनेंस की जरूरत समझी जा रही है तो रेलवे स्टेशन पर चाय पीने या रेलवे कैंटीन में भोजन-नाश्ते के लिए भी आकर्षक किश्तों में फाइनेंस को पीपीपी मॉडल से जन कल्याणकारी बनाया जा सकता है। सरकार चाहे तो रेलवे की उधारी नहीं चुकाने वालों को माफ करके अपनी छवि लोक कल्याणकारी बना सकती है। महंगाई से राहत का यह नायाब नुस्खा रेलवे में कारगर रहे, तो इसे प्राइवेट स्कूल, सब्जी मंडी से लेकर किराना स्टोर तक आजमाया जा सकता है। सरकार चाहे तो इस पर सब्सिडी सीधे खाते में भी जमा करवा सकती है या फिर सीधे फाइनेंस कम्पनियों को भी दी जा सकती है। सरकार चाहे, तो महंगाई से राहत के इन प्रयासों को प्रभावी बनाने के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की राह भी खोल सकती है। विदेशी निवेश यदि स्वदेशी पसंद सरकार को नहीं जच रहा है तो विदेशी बैंकों में जमा स्वदेशी धन के देश में आने तक राहत के फाइनेंस की किश्तें चुकाने से छूट दी जा सकती है। जब काला धन स्वदेश आकर गंगाजल से पवित्र हो जाए तो उससे आम आदमी का बकाया चुका कर स्थाई राहत दी जा सकती है। http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/3768277
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डेली न्यूज में 5 नवंबर, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य— रेल यात्रियों के अच्छे दिन

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