Monday, 29 July 2013

रंग लाएगा माफीनामा - डॉ. हनुमान गालवा

http://newstoday.epapr.in/141311/Jaipur-Regional/29-07-2013#page/5/1

रंग लाएगा माफीनामा
- डॉ. हनुमान गालवा
खाकी अपनी छवि सुधारने को लेकर चिंतित है। अब खाकी को सिखाया-समझाया जा रहा है कि लोगों से सलीके से पेश आएं। अब किसी प्रकरण में खाकी पहले रौब झाड़ेगी और फिर क्षमा याचना करते हुए प्रताडि़त को समझाएगी कि यह आपके हित में है। खाकी की भाषा को लेकर कई शोध हो चुके हैं। तमाम शोध निष्कर्षों का सार यही रहा कि खाकी के मुंह से नम्रता बरसेगी तो फिर बदमाश डरेंगे कैसे? वैसे भी खाकी के पास जुबान ही एकमात्र कारगर हथियार है, जिससे खाकी का रुतबा बचा हुआ है। यही हथियार भौंथरा कर दिया जाएगा तो फिर खाकी की कौन सुनेगा। खैर, जब खाकी को ही अपने रुतबे की परवाह नहीं है तो फिर हम पराए दुख क्यों दुबले हों? मुद्दे की बात करते हैं। जरा सोचिए, जब खाकी की चाल-चलन और बोली बदल जाएगी, तब कैसा माहौल होगा। जब कोई लूट की बड़ी वारदात होगी, तब हर बार की तरह लूटेरों का पीछा करने की बजाय जगह-जगह नाकेबंदी में अपनी मुस्तैदी दिखाकर आने-जाने वालों की जेब का बोझ हल्का करके सिपाही मुस्कुराते हुए कहते मिलेंगे कि सॉरी, यह आपके हित में हैं। सिपाही यह भी समझाते हुए मिल जाएंगे कि देखिए चालान कटवाएंगे तो पूरे दौ सौ रुपए लगेंगे, हम आपकी सेवा कुछ कम में ही कर देंगे। लोग भी खुश होंगे कि चलो एक सौ रुपए बचा लिए और सिपाही भी खुश कि चलो दिन बेकार नहीं गया। किसी चोर से चोरी की अन्य वारदातें भी कबूल करवानी हो तो हवालात में उसे सलीके से समझाया जाएगा कि यह तेरे भी हित में है और हमारे भी, क्योंकि तेरा इससे रुतबा बढ़ेगा और हमारी इससे नौकरी बची रहेगी। फर्जी मुठभेड़ में भी किसी के प्राण लेने से पहले उससे क्षमा याचना की जाएगी कि सॉरी, तेरे को ऊपर भेजना हमारे ऊपर वालों की मर्जी है। आंदोनकारियों के तंबू उखाड़ते हुए सिपाही भी अनुनय-विनय करेंगे कि आपके तंबू नहीं उखाड़े तो सरकार हमारे तंबू उखाड़ देगी। वकीलों का उग्र प्रदर्शन खाकी रोकने के बजाय लोगों से क्षमा याचना करते हुए मिलेगी कि सॉरी, हमारे बॉस का हित इसी में है कि आपको परेशान होने दिया जाए।
न्यूज टुडे, जयपुर में 29 जुलाई, 2013 को प्रकाशित व्यंग

Saturday, 20 July 2013

क्यों रोके सरकार
- डॉ. हनुमान गालवा
इंटरनेट पर दौड़ रही अश्लीललता सरकार नहीं रोक सकती। चूंकि सरकार ने यह पते की बात न्यायालय में हलफनामा देकर कही है। लिहाजा अब सरकार के सामने अपनी बात से मुकरने का भी कोई चांस नहीं है। साफ कहना और सुखी रहना। पहली बार सरकार ने सच स्वीकारने की हिम्मत दिखाई। गुणीजन भी सरकार की पीठ थपथपाने के बजाय पता नहीं क्यों कान खींचने लगे हैं। आखिर सरकार किस-किस को रोके। ममता दीदी को रोकने के सरकार ने कोई कम प्रयास थोड़े ही किए थे। ममता दीदी को नहीं रोक पाने पर सरकार को ज्ञान हुआ कि जिसे रुकना है, वही रुकेगा और जिसे जाना है, उसे कोई नहीं रोक सकता। दीदी गई तो सरकार बचाने के लिए नए दीदी (मायावती) और भाई साहब (मुलायम सिंह) आ गए। ये दोनों उत्तर प्रदेश में लड़ रहे हैं, लेकिन केन्द्र में यूपीए सरकार को बचाने में इनका झगड़ा बाधक नहीं है। जब से ममता दीदी सरकार से रुठी है, तब से सरकार ने तय कर लिया है कि अब न तो किसी को रोकेगी और न ही किसी को बुलाएगी। जब सरकार बिना चलाए ही चल रही है और घटक दल बिना रोके ही रुक रहे हैं तो फिर इंटरनेट पर अश्लीलता जब थकेगी, अपने आप रुक जाएगी। अपने आप ही रुक जाने की उम्मीद में सरकार न तो महंगाई रोक रही है और न ही आतंकवाद और नक्सली हमले रोकने का कोई प्रयास कर रही है। अलबता सरकार के कर्णधार बयानों से बार-बार चुनौती देकर इनको ललकार रहे हैं, ताकि थक हार कर ये चुनौतियां भी अपने आप ही रुक जाए। अब यह घोषित करने का वक्त आ गया है कि रोकना सरकार का काम नहीं है। सरकार का काम टालना या अटकाना है, जो बखूबी कर रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन को ही ले लीजिए। सरकार ने कैसे एक जन आंदोलन को केजरीवाल की पार्टी में समेटकर अपनी बला टाल दी। महंगाई रोकने की तारीख दर तारीख से लोगों ने महंगाई के बारे में सोचना ही बंद कर दिया। जब समस्या टालने या अटकाने से ही सुलझ रही है तो फिर उनको रोकने की क्या जरूरत?
न्यूज टुडे जयपुर के 20 जुलाई, 2013 के संस्करण में प्रकाशित व्यंग्य 
http://newstoday.epapr.in/138116/Newstoday-Jaipur/20-07-2013#page/5/1

Saturday, 13 July 2013

बैकडोर भर्तियों का नियमन





http://www.dailynewsnetwork.in/news/opinion/06062013/Opinion/91520.html


daily01

राजस्थान में शिक्षा सहयोगियों की भर्ती के परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक सरकार के अलोकतांत्रिक आचरण को समझा जा सकता है। यह एक ऎसी भर्ती है, जिसमें आवेदन से लेकर चयन तक की प्रक्रिया पर ऎसे कई सवाल खड़े हैं, जो इसकी निष्पक्षता को चुनौती देते हैं। ताजा हालात को देखते हुए लगता है कि पहले से सब कुछ तय है।

ऎसे में भर्ती की नौटंकी क्यों? यह कवायद सिर्फ इसलिए की जा रही है, ताकि उनकी राह में कोई कानूनी अड़चन नहीं आए। इस भर्ती और अतिक्रमणों के नियमन में कोई फर्क नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो आजकल सरकारी नौकरियों में ज्यादातर भर्तियां इसी तर्ज पर होने लगी हंै।

पहले मनमाने तरीके से बिना किसी मानदंड के अस्थाई रखा जाता है। जब अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़ जाती है, तब चुनावी फायदे के लिए सरकार एक ही फरमान से सभी को स्थाई नौकरी का तोहफा दे देती है या फिर इस राह में कानूनी बाधा आने पर उसे आसान बनाने के लिए नियम-कायदों को ही बदल डालती है।

सरकार की इसी कोशिश में सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापकों के तीन संवर्ग बन गए हैं। पहला संवर्ग तो उन अध्यापकों का है, जो प्रतियोगी परीक्षा के जरिए चयनित होकर मैरिट से लगे हैं। दूसरा संवर्ग उनका है, जो स्थानीय राजनीतिक एप्रोच से पैराटीचर के रूप में लगे थे और जिनको स्थाई करने के लिए सरकार को प्रबोधक पद सृजित करना पड़ा। तीसरा संवर्ग अब शिक्षा सहयोगियों का बनने जा रहा है, जो विद्यार्थी मित्र के रूप में पूर्णया अस्थाई रूप से शिक्षकों के रिक्त पदों पर लगाए गए थे।

इस तरह की भर्तियों में पदनाम बदलकर सरकार कानूनी प्रावधानों का भी तोड़ निकाल लेती है। गत दिनों एक सरकारी विश्वविद्यालय में चपरासी के सात पदों के लिए पूरे प्रदेश से आशार्थियों को बुलाया गया। पूरे तीन दिन साक्षात्कार की नौटंकी हुई और परिणाम फिक्स था। यानी पहले से अस्थाई लगे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को स्थाई करने की कवायद में सैकड़ों आशार्थियों को बेवजह परेशान होना पड़ा। राजस्थान प्रशासनिक सेवा की एक चर्चित भर्ती का उदाहरण यहां समीचन होगा। उस समय आरपीएससी ने आरएएस के एक पद के लिए आवेदन मांगे और हायर सैकंडरी उत्तीüण अभ्यर्थियों को भी आवेदन के लिए विशेष छूट दी गई। पूरे प्रदेश से बड़ी तादाद में आवेदन आए।

लिखित परीक्षा हुई और साक्षात्कार की भी रस्म अदायगी हुई। परिणाम आया, तब लोगों को पता लगा कि यह भर्ती तत्कालीन मुख्यमंत्री के नोन ग्रेजुएट दामाद को आरएसएस अफसर बनाने की तिकड़म थी। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रतिभाओं को दरकिनार करने के लिए सरकार खुद व्यवस्था को तोड़ने लगेगी, तो व्यवस्था के प्रति आम आदमी का भरोसा कैसे कायम रह पाएगा। यह स्थिति न्याय आधारित व्यवस्था को झुठलाती है। तिकड़म और मनमानी को किसी रूप में प्रश्रय व्यवस्था को नाकारा ही बनाएगा। ऎसी स्थिति व्यवस्था को अराजकता की ओर धकेलती है।

सरकार की भर्ती और नियमन प्रक्रिया में कथनी और करनी का भेद साफ दिखता है। सरकार में बैठे लोग वादा तो व्यवस्था को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने का करते हैं, लेकिन व्यवहार में तंत्र को अपने हिसाब से हांकते दिखते हैं। सरकार अपनी आवासीय योजना में मकान या भूखंड के उन लोगों से तमाम करों सहित पूरे दाम वसूलती है, जो नियमानुसार आवेदन करते हैं, कर चुकाते हैं और व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखते हैं। समय-समय पर चुनावी ताकत का एहसास कराने वाले कर्मचारी वर्ग को सरकार कुछ छूट देती है।

सरकार को धौंस दिखाने वालों को आधी छूट दी जाती है, लेकिन उन लोगों को पूरी छूट दी जाती है, जो कानून-कायदे को ताक में रखकर सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करके काबिज होते हैं। इसी तरह बिजली-पानी के कनेक्शन के लिए विभागीय मानदंडों को पूरा करने वाले दर-दर की ठोकरे खाते फिरते हैं, जबकि चोरीवाड़े से लिए गए कनेक्शन को सरकार नियमित कर देती है। यही आलम सरकार की ऋण योजनाओं का है। जो किसान समय पर कर्ज चुकता करता है, उसे कोई छूट नहीं मिलती है। जो कर्ज नहीं चुकाते हैं, वे मजे में रहते हैं, क्योंकि सरकार एकमुश्त कर्ज माफी की घोषणा कर देती है। पग-पग में तंत्र साहूकार को चोर साबित करता और चोर का साथ देता दिखता है।

व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखने वालों को प्रताड़ना और व्यवस्था को धता बताने वालों को किसी रूप में दुलार समूची व्यवस्था को ही विकृत बना देता है। हालांकि भर्तियों को निष्पक्ष बनाने की कई बार कोशिश भी हुई और उन प्रयासों के सार्थक परिणाम भी परिलक्षित होने लगे, लेकिन राजनीतिक तिकड़बाजों को रास नहीं आने से सुधार की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई। पूर्ववती भाजपा सरकार के थर्ड ग्रेड टीचर की भर्ती आरपीएससी से करवाने के निर्णय को उलटकर वर्तमान सरकार ने यह काम पुन: जिला परिषदों के हवाले कर दिया। साक्षात्कार बंद करके पुलिस भर्ती में मनमानी रोकने के प्रयास हुए, लेकिन अन्य भर्ती परीक्षाओं की साक्षात्कार प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाने के कोई प्रयास नहीं हुए।

सरकार केवल साक्षात्कार प्रक्रिया को कैमरे में कैद करवाने की ही अनिवार्यता कर दे, तो बाकी काम तो सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से खुद अभ्यर्थी कर देंगे। सुधार नहीं हुआ तो लोगों का व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ेगा, जिसे रोक पाना मुश्किल होगा। भर्तियों को निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं बनाया गया, तो सरकारी नौकरियों में तिकड़मबाजों का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा। यह स्थिति न तो सरकार के लिए ठीक होगी और न ही इससे नागरिक सुविधा-सेवा को सुदृढ़ बनाया जा सकेगा।


डॉ. हनुमान गालवा
बैकडोर भर्तियों का नियमन





http://www.dailynewsnetwork.in/news/opinion/06062013/Opinion/91520.html


daily01

राजस्थान में शिक्षा सहयोगियों की भर्ती के परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक सरकार के अलोकतांत्रिक आचरण को समझा जा सकता है। यह एक ऎसी भर्ती है, जिसमें आवेदन से लेकर चयन तक की प्रक्रिया पर ऎसे कई सवाल खड़े हैं, जो इसकी निष्पक्षता को चुनौती देते हैं। ताजा हालात को देखते हुए लगता है कि पहले से सब कुछ तय है।

ऎसे में भर्ती की नौटंकी क्यों? यह कवायद सिर्फ इसलिए की जा रही है, ताकि उनकी राह में कोई कानूनी अड़चन नहीं आए। इस भर्ती और अतिक्रमणों के नियमन में कोई फर्क नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो आजकल सरकारी नौकरियों में ज्यादातर भर्तियां इसी तर्ज पर होने लगी हंै।

पहले मनमाने तरीके से बिना किसी मानदंड के अस्थाई रखा जाता है। जब अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़ जाती है, तब चुनावी फायदे के लिए सरकार एक ही फरमान से सभी को स्थाई नौकरी का तोहफा दे देती है या फिर इस राह में कानूनी बाधा आने पर उसे आसान बनाने के लिए नियम-कायदों को ही बदल डालती है।

सरकार की इसी कोशिश में सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापकों के तीन संवर्ग बन गए हैं। पहला संवर्ग तो उन अध्यापकों का है, जो प्रतियोगी परीक्षा के जरिए चयनित होकर मैरिट से लगे हैं। दूसरा संवर्ग उनका है, जो स्थानीय राजनीतिक एप्रोच से पैराटीचर के रूप में लगे थे और जिनको स्थाई करने के लिए सरकार को प्रबोधक पद सृजित करना पड़ा। तीसरा संवर्ग अब शिक्षा सहयोगियों का बनने जा रहा है, जो विद्यार्थी मित्र के रूप में पूर्णया अस्थाई रूप से शिक्षकों के रिक्त पदों पर लगाए गए थे।

इस तरह की भर्तियों में पदनाम बदलकर सरकार कानूनी प्रावधानों का भी तोड़ निकाल लेती है। गत दिनों एक सरकारी विश्वविद्यालय में चपरासी के सात पदों के लिए पूरे प्रदेश से आशार्थियों को बुलाया गया। पूरे तीन दिन साक्षात्कार की नौटंकी हुई और परिणाम फिक्स था। यानी पहले से अस्थाई लगे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को स्थाई करने की कवायद में सैकड़ों आशार्थियों को बेवजह परेशान होना पड़ा। राजस्थान प्रशासनिक सेवा की एक चर्चित भर्ती का उदाहरण यहां समीचन होगा। उस समय आरपीएससी ने आरएएस के एक पद के लिए आवेदन मांगे और हायर सैकंडरी उत्तीüण अभ्यर्थियों को भी आवेदन के लिए विशेष छूट दी गई। पूरे प्रदेश से बड़ी तादाद में आवेदन आए।

लिखित परीक्षा हुई और साक्षात्कार की भी रस्म अदायगी हुई। परिणाम आया, तब लोगों को पता लगा कि यह भर्ती तत्कालीन मुख्यमंत्री के नोन ग्रेजुएट दामाद को आरएसएस अफसर बनाने की तिकड़म थी। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रतिभाओं को दरकिनार करने के लिए सरकार खुद व्यवस्था को तोड़ने लगेगी, तो व्यवस्था के प्रति आम आदमी का भरोसा कैसे कायम रह पाएगा। यह स्थिति न्याय आधारित व्यवस्था को झुठलाती है। तिकड़म और मनमानी को किसी रूप में प्रश्रय व्यवस्था को नाकारा ही बनाएगा। ऎसी स्थिति व्यवस्था को अराजकता की ओर धकेलती है।

सरकार की भर्ती और नियमन प्रक्रिया में कथनी और करनी का भेद साफ दिखता है। सरकार में बैठे लोग वादा तो व्यवस्था को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने का करते हैं, लेकिन व्यवहार में तंत्र को अपने हिसाब से हांकते दिखते हैं। सरकार अपनी आवासीय योजना में मकान या भूखंड के उन लोगों से तमाम करों सहित पूरे दाम वसूलती है, जो नियमानुसार आवेदन करते हैं, कर चुकाते हैं और व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखते हैं। समय-समय पर चुनावी ताकत का एहसास कराने वाले कर्मचारी वर्ग को सरकार कुछ छूट देती है।

सरकार को धौंस दिखाने वालों को आधी छूट दी जाती है, लेकिन उन लोगों को पूरी छूट दी जाती है, जो कानून-कायदे को ताक में रखकर सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करके काबिज होते हैं। इसी तरह बिजली-पानी के कनेक्शन के लिए विभागीय मानदंडों को पूरा करने वाले दर-दर की ठोकरे खाते फिरते हैं, जबकि चोरीवाड़े से लिए गए कनेक्शन को सरकार नियमित कर देती है। यही आलम सरकार की ऋण योजनाओं का है। जो किसान समय पर कर्ज चुकता करता है, उसे कोई छूट नहीं मिलती है। जो कर्ज नहीं चुकाते हैं, वे मजे में रहते हैं, क्योंकि सरकार एकमुश्त कर्ज माफी की घोषणा कर देती है। पग-पग में तंत्र साहूकार को चोर साबित करता और चोर का साथ देता दिखता है।

व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखने वालों को प्रताड़ना और व्यवस्था को धता बताने वालों को किसी रूप में दुलार समूची व्यवस्था को ही विकृत बना देता है। हालांकि भर्तियों को निष्पक्ष बनाने की कई बार कोशिश भी हुई और उन प्रयासों के सार्थक परिणाम भी परिलक्षित होने लगे, लेकिन राजनीतिक तिकड़बाजों को रास नहीं आने से सुधार की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई। पूर्ववती भाजपा सरकार के थर्ड ग्रेड टीचर की भर्ती आरपीएससी से करवाने के निर्णय को उलटकर वर्तमान सरकार ने यह काम पुन: जिला परिषदों के हवाले कर दिया। साक्षात्कार बंद करके पुलिस भर्ती में मनमानी रोकने के प्रयास हुए, लेकिन अन्य भर्ती परीक्षाओं की साक्षात्कार प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाने के कोई प्रयास नहीं हुए।

सरकार केवल साक्षात्कार प्रक्रिया को कैमरे में कैद करवाने की ही अनिवार्यता कर दे, तो बाकी काम तो सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से खुद अभ्यर्थी कर देंगे। सुधार नहीं हुआ तो लोगों का व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ेगा, जिसे रोक पाना मुश्किल होगा। भर्तियों को निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं बनाया गया, तो सरकारी नौकरियों में तिकड़मबाजों का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा। यह स्थिति न तो सरकार के लिए ठीक होगी और न ही इससे नागरिक सुविधा-सेवा को सुदृढ़ बनाया जा सकेगा।


डॉ. हनुमान गालवा
बैकडोर भर्तियों का नियमन





http://www.dailynewsnetwork.in/news/opinion/06062013/Opinion/91520.html


daily01

राजस्थान में शिक्षा सहयोगियों की भर्ती के परिप्रेक्ष्य में लोकतांत्रिक सरकार के अलोकतांत्रिक आचरण को समझा जा सकता है। यह एक ऎसी भर्ती है, जिसमें आवेदन से लेकर चयन तक की प्रक्रिया पर ऎसे कई सवाल खड़े हैं, जो इसकी निष्पक्षता को चुनौती देते हैं। ताजा हालात को देखते हुए लगता है कि पहले से सब कुछ तय है।

ऎसे में भर्ती की नौटंकी क्यों? यह कवायद सिर्फ इसलिए की जा रही है, ताकि उनकी राह में कोई कानूनी अड़चन नहीं आए। इस भर्ती और अतिक्रमणों के नियमन में कोई फर्क नहीं है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो आजकल सरकारी नौकरियों में ज्यादातर भर्तियां इसी तर्ज पर होने लगी हंै।

पहले मनमाने तरीके से बिना किसी मानदंड के अस्थाई रखा जाता है। जब अस्थाई कर्मचारियों की तादाद बढ़ जाती है, तब चुनावी फायदे के लिए सरकार एक ही फरमान से सभी को स्थाई नौकरी का तोहफा दे देती है या फिर इस राह में कानूनी बाधा आने पर उसे आसान बनाने के लिए नियम-कायदों को ही बदल डालती है।

सरकार की इसी कोशिश में सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले अध्यापकों के तीन संवर्ग बन गए हैं। पहला संवर्ग तो उन अध्यापकों का है, जो प्रतियोगी परीक्षा के जरिए चयनित होकर मैरिट से लगे हैं। दूसरा संवर्ग उनका है, जो स्थानीय राजनीतिक एप्रोच से पैराटीचर के रूप में लगे थे और जिनको स्थाई करने के लिए सरकार को प्रबोधक पद सृजित करना पड़ा। तीसरा संवर्ग अब शिक्षा सहयोगियों का बनने जा रहा है, जो विद्यार्थी मित्र के रूप में पूर्णया अस्थाई रूप से शिक्षकों के रिक्त पदों पर लगाए गए थे।

इस तरह की भर्तियों में पदनाम बदलकर सरकार कानूनी प्रावधानों का भी तोड़ निकाल लेती है। गत दिनों एक सरकारी विश्वविद्यालय में चपरासी के सात पदों के लिए पूरे प्रदेश से आशार्थियों को बुलाया गया। पूरे तीन दिन साक्षात्कार की नौटंकी हुई और परिणाम फिक्स था। यानी पहले से अस्थाई लगे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को स्थाई करने की कवायद में सैकड़ों आशार्थियों को बेवजह परेशान होना पड़ा। राजस्थान प्रशासनिक सेवा की एक चर्चित भर्ती का उदाहरण यहां समीचन होगा। उस समय आरपीएससी ने आरएएस के एक पद के लिए आवेदन मांगे और हायर सैकंडरी उत्तीüण अभ्यर्थियों को भी आवेदन के लिए विशेष छूट दी गई। पूरे प्रदेश से बड़ी तादाद में आवेदन आए।

लिखित परीक्षा हुई और साक्षात्कार की भी रस्म अदायगी हुई। परिणाम आया, तब लोगों को पता लगा कि यह भर्ती तत्कालीन मुख्यमंत्री के नोन ग्रेजुएट दामाद को आरएसएस अफसर बनाने की तिकड़म थी। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रतिभाओं को दरकिनार करने के लिए सरकार खुद व्यवस्था को तोड़ने लगेगी, तो व्यवस्था के प्रति आम आदमी का भरोसा कैसे कायम रह पाएगा। यह स्थिति न्याय आधारित व्यवस्था को झुठलाती है। तिकड़म और मनमानी को किसी रूप में प्रश्रय व्यवस्था को नाकारा ही बनाएगा। ऎसी स्थिति व्यवस्था को अराजकता की ओर धकेलती है।

सरकार की भर्ती और नियमन प्रक्रिया में कथनी और करनी का भेद साफ दिखता है। सरकार में बैठे लोग वादा तो व्यवस्था को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने का करते हैं, लेकिन व्यवहार में तंत्र को अपने हिसाब से हांकते दिखते हैं। सरकार अपनी आवासीय योजना में मकान या भूखंड के उन लोगों से तमाम करों सहित पूरे दाम वसूलती है, जो नियमानुसार आवेदन करते हैं, कर चुकाते हैं और व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखते हैं। समय-समय पर चुनावी ताकत का एहसास कराने वाले कर्मचारी वर्ग को सरकार कुछ छूट देती है।

सरकार को धौंस दिखाने वालों को आधी छूट दी जाती है, लेकिन उन लोगों को पूरी छूट दी जाती है, जो कानून-कायदे को ताक में रखकर सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करके काबिज होते हैं। इसी तरह बिजली-पानी के कनेक्शन के लिए विभागीय मानदंडों को पूरा करने वाले दर-दर की ठोकरे खाते फिरते हैं, जबकि चोरीवाड़े से लिए गए कनेक्शन को सरकार नियमित कर देती है। यही आलम सरकार की ऋण योजनाओं का है। जो किसान समय पर कर्ज चुकता करता है, उसे कोई छूट नहीं मिलती है। जो कर्ज नहीं चुकाते हैं, वे मजे में रहते हैं, क्योंकि सरकार एकमुश्त कर्ज माफी की घोषणा कर देती है। पग-पग में तंत्र साहूकार को चोर साबित करता और चोर का साथ देता दिखता है।

व्यवस्था के प्रति निष्ठा रखने वालों को प्रताड़ना और व्यवस्था को धता बताने वालों को किसी रूप में दुलार समूची व्यवस्था को ही विकृत बना देता है। हालांकि भर्तियों को निष्पक्ष बनाने की कई बार कोशिश भी हुई और उन प्रयासों के सार्थक परिणाम भी परिलक्षित होने लगे, लेकिन राजनीतिक तिकड़बाजों को रास नहीं आने से सुधार की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई। पूर्ववती भाजपा सरकार के थर्ड ग्रेड टीचर की भर्ती आरपीएससी से करवाने के निर्णय को उलटकर वर्तमान सरकार ने यह काम पुन: जिला परिषदों के हवाले कर दिया। साक्षात्कार बंद करके पुलिस भर्ती में मनमानी रोकने के प्रयास हुए, लेकिन अन्य भर्ती परीक्षाओं की साक्षात्कार प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाने के कोई प्रयास नहीं हुए।

सरकार केवल साक्षात्कार प्रक्रिया को कैमरे में कैद करवाने की ही अनिवार्यता कर दे, तो बाकी काम तो सूचना के अधिकार के इस्तेमाल से खुद अभ्यर्थी कर देंगे। सुधार नहीं हुआ तो लोगों का व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ेगा, जिसे रोक पाना मुश्किल होगा। भर्तियों को निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं बनाया गया, तो सरकारी नौकरियों में तिकड़मबाजों का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा। यह स्थिति न तो सरकार के लिए ठीक होगी और न ही इससे नागरिक सुविधा-सेवा को सुदृढ़ बनाया जा सकेगा।


डॉ. हनुमान गालवा

Friday, 12 July 2013

लाइक्स पर राजनीति

- डॉ. हनुमान गालवा
लाइक्स खरीदकर लायक बनने की तारीफ हो रही है या लाइक्स नहीं खरीद पाने की अपनी ना-लायकी को कोसा जा रहा है। जो आरोप लगा रहे हैं, वे भी जानते हैं और जिन पर आरोप लगाए जा रहे हैं, वे भी मानते हैं कि राजस्थान की जनता ने किसी के पक्ष में स्पष्ट जनादेश नहीं दिया था। खंडित जनादेश को 'लाइक्सÓ का जुगाड़ करके स्पष्ट जनादेश में कनवर्ट किया गया था। सही मायने में जुगाड़ की यह कलाबाजी ही लोकतंत्र है। जो इसमें निपुण हैं, वे बिना बहुमत के भी सरकार चला लेते हैं। जो अनाड़ी हैं, वे सत्ता के किनारे आकर भी सत्तासुख से वंचित रह जाते हैं। वैसे भी इस समय देश की राजनीति 'लाइक्सÓ की धुरी पर ही घूम रही है। कांग्रेस में मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक जानते हैं कि वे पद पर तभी तक हैं, जब तक उनको मैडम लाइक कर रही हैं। तमाम कांग्रेसी भी उसी को लाइक करते हैं, जिनको मैडम या युवराज लाइक करते हैं। जिसको मैडम या युवराज लाइक करते हैं, उसको कांग्रेस के तमाम लाइक्स की पूर्णाहुति मान ली जाती है। कांग्रेस के लिए लाइक्स दवा है तो भाजपा के लिए यह बीमारी। भाजपा में पीएम इन वेटिंग नए दावेदार को अनलाइक करते हैं तो नए दावेदार अपने सिवाय किसी को लाइक नहीं करते। एनडीए के प्रमुख घटक जदयू ने भाजपा को महज इसलिए अनलाइक कर दिया कि भाजपा ने प्रधानमंत्री के नए दावेदार को लाइक कर दिया। लाइक-अनलाइक के पेच में उलझी भाजपा के रणनीतिकारों को प्रधानमंत्री की दावेदारी के मायाजाल से बाहर निकलने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। ऐसे में भाजपा की इस बला को कांग्रेस शासित राज्य का कोई मुख्यमंत्री खरीद रहा है तो भाजपा नेताओं को तो खुश होना चाहिए। अलबता कांग्रेस को इस मुद्दे पर जरूर कठघरे में खड़ा किया जा सकता है कि लाइक्स खरीदने ही थे तो अपने ही देश में खरीद लेते हैं। यहां जब सभी बिकाऊ हैं तो फिर विदेशियों से लाइक्स खरीदकर बिकने की अपनी क्षमता पर सवाल क्यों खड़ा किया?


न्यूज टुडे जयपुर के 12 जुलाई के अंक में प्रकाशित व्यंग्यhttp://newstoday.epapr.in/135116/Newstoday-Jaipur/12-07-2013#page/5/1
 

Thursday, 11 July 2013

जीमने का अधिकार

- डॉ. हनुमान गालवा
राइट टू फूड यानी जीमने का अधिकार। पहली बात तो जब बिना कानून ही सभी बेशर्मी से जीम रहे हैं तो फिर इसके लिए कानून बनाने की जरूरत क्यों? दूसरी बात, कानून बन भी गया तो क्या जीमने के बाद डकार लेने के लिए अलग से कानून नहीं बनाना पड़ेगा? तीसरी बात, क्या जीमने में चाटने का अधिकार निहित होगा या यह छूट केवल सत्ता के खिलाडिय़ों को ही मिलेगी? चौथी बात, यह भी तय करना होगा कि चाटकर डकार लेंगे या डकार लेकर चाटेंगे। पांचवी बात, नेताओं का तो हाजमा ठीक है, लेकिन आम आदमी का हाजमा ठीक करने के लिए एक कानून बनाना पड़ेगा। आधार की तर्ज पर हाजमे का भी एक कार्ड बनाया जा सकता है। यह प्रावधान भी हो सकता है कि जिसका हाजमा ठीक होगा, केवल उसी को यह हक मिलेगा। सर्व शिक्षा अभियान की तर्ज पर हाजमे को लेकर भी देशव्यापी अभियान चलाया जा सकता है। सर्वे करवाया जा सकता है कि कर्मचारियों का हाजमा ज्यादा ठीक है या नेताओं या फिर मतदाताओं का? सर्वे निष्कर्षों की समीक्षा के आधार पर आंकड़ों की कलाबाजी से समाजवाद लाने का काम योजना आयोग को सौंपा जा सकता है। योजना आयोग हाजमे के अनुरूप जीमने के अधिकार का वर्गीकरण कर सकता है। वैसे भी प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए राजीव गांधी ने स्वीकारा था कि केन्द्र एक रुपया भेजता है तो लोग 85 पैसे बीच में ही जीम जाते हैं। उनके बेटे राहुल गांधी के हिसाब से लोगों की खुराक बढ़ी है। यह भी तय होना है कि खुराक के अनुसार जीमने की व्यवस्था हो या व्यवस्था में पहुंच के आधार पर जीमने का अधिकार मिले। यह भी विचारणीय है कि जो जीम गए और डकार भी नहीं ली, क्या उनको इस मुहिम का ब्रांड एंबेसेडर बनाया जाए या ब्रांड एंबेसेडर के लिए आईपीएल की तर्ज पर जीमने की राष्ट्रीय प्रतियोगिता आयोजित करवाई जाए? जिस गठबंधन को जीमने का जनादेश मिला हुआ है, लिहाजा फिक्सिंग की छूट भी उसी को मिलनी चाहिए।

न्यूज टुडे, जयपुर में 24 जून, 2013 को प्रकाशित व्यंग्यhttp://newstoday.epapr.in/128438/Newstoday-Jaipur/24-06-2013#page/5/1