देश में हर बदलाव, क्रांति या आंदोलन में महिलाएं अग्रणी रही हैं। स्वच्छ भारत क्रांति में भी एक जागरूक महिला ने अपनी बकरियां बेचकर घर में स्वच्छ शौचालय बनवा कर अपना योगदान दिया। इसी तरह एक नवविवाहिता ससुराल में शौचालय नहीं होने पर रूठकर पीहर चली गई। इस नवविवाहित की ससुराल वापसी को भी स्वच्छ भारत क्रांति के प्रेरक अध्याय में शामिल किया जा सकता है। इन दोनों महिलाओं के योगदान को स्वच्छ भारत क्रांति में स्वर्णिम अध्याय के रूप में दर्ज करने की तैयारी है। जाहिर है, अब बच्चों को न केवल इन महिलाओं के योगदान को पढ़ाया जाएगा,बल्कि सरकारी नौकरी के लिए आयोजित होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं में भी इस संबंध में अहम सवाल पूछे जा सकते हैं। मसलन, बकरियां बेचकर शौचालय बनवाने वाली महिला के संदर्भ में पूछा जा सकता है कि शौचालय बनवाने के लिए महिला को चार बकरियां बेचनी पड़ी तो शौचालय के इस्तेमाल के लिए सालभर पानी के जुगाड़ के लिए उसे कितनी और बकरियां बेचनी पड़ेंगी? या फिर उसे यदि सरकारी मदद नहीं मिलती तो शौचालय बनवाने के लिए कितनी और बकरियां बेचनी पड़ती। गुणा-भाग के आधार पर यह भी लेखा-जोखा तैयार करवाया जा सकता है कि एक व्यक्ति को पीने के लिए यदि प्रतिदिन दस लीटर पानी की जरूरत है तो शौचालय के इस्तेमाल से देश में पानी की खपत कितनी बढ़ जाएगी। इसी तरह नवविवाहता की ससुराल वापसी के अध्याय से सवाल तैयार किया जा सकता है कि यदि महिला को पीने के लिए घर में चार घड़े पानी लाना पड़ता है तो अब शौचालय में इस्तेमाल के लिए उसे कितने घड़े पानी लाना पड़ेगा? ऐसे सवालों से क्रिएटीविटी को बढ़ाया जा सकता है कि नवविवाहिता की गृहस्थी बचाने के लिए सरकारी मदद के उपाय सुझाइए? घर में शौचालय बनने से पहले और बाद की स्थिति का सामाजिक-आर्थिक-मनोवैज्ञानिक सर्वेक्षण भी करवाया जा सकता है कि अब ज्यादा चर्चा किस विषय पर करते हैं- ए. भ्रष्टाचार,बी. महंगाई, सी. बेरोजगार तथा डी. शौचालय। इस तरह के सर्वेक्षण के आधार पर सरकारी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश में महंगाई, बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं पर काबू पा लिया गया। भ्रष्टाचार मुक्ति केइस उपाय का तुरंत पेटेंट करवा लेना चाहिए, ताकि योग की तरह इससे भी रोजगार का संयोग तैयार किया जा सके। वैसे अब देश के सामने केवल एकमात्र चुनौती है- खुले में शौच। इस चुनौती से पार पाने के लिए स्वच्छ भारत क्रांति की परिकल्पना को साकार किया जाना जरूरी है।
दिसंबर, 2017 को प्रकाशित व्यंग्य
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