Tuesday, 5 December 2017

तीन साल में तीन भारत, फिर भी महाभारत - डॉ. हनुमान गालवा

अच्छे दिनों की सरकार में केवल अच्छी ही बातें होनी चाहिए। अच्छे दिनों की सरकार के साढ़े तीन साल में छह माह तो स्वागत-सत्कार में बीत गए। शेष तीन साल में तीन भारत बना दिए। लोकसभा चुनाव के दौरान अच्छे दिनों ने उड़ान भरी। चुनाव परिणाम से लगे पंखों ने अच्छे दिनों की उड़ान को गति दी। अच्छे दिनों का आगाज मेक इन इंडिया से हुआ। न्यू इंडिया में अच्छे दिनों का उल्लास परवान चढ़ा। अब पॉजिटिव इंडिया पॉजिटिव एनर्जी लेकर अच्छे दिनों ने अंगड़ाई ली है। इस अंगड़ाई की आहट में अच्छे दिनों को अनूभूत किया जा सकता है कि निंदा से परे अब केवल अच्छी बातें ही होनी चाहिए। यानी कि अच्छे दिनों के इस मौसम में अच्छे दिनों के निर्णय को लेकर कोई सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए। अच्छे दिनों को लेकर किसी को कोई संशय नहीं होना चाहिए। किसी को अंगुली उठाकर अच्छे दिनों की अनुभूति में खलल डालने का कोई हक नहीं बनता है। अच्छे दिन आए हैं तो अच्छे दिनों का कुछ ठहराव भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। ऐसे तो हर बदलाव के साथ अच्छे दिन आते हैं और बिना बदलाव के हवा भी हो जाते हैं। अच्छे दिनों के ठहराव के लिए अच्छे दिनों को टिकाऊ बनाना जरूरी है। आलोचना से अब अच्छे दिन बिदकने लगे हैं। लिहाजा आलोचना पर अंकुश जरूरी हो गया है। जब तीन साल में तीन-तीन भारत बना दिए तो फिर अच्छे दिनों को लेकर महाभारत क्यों? पहले सत्ता की थाली में जंवाई जीम रहे थे। अब अच्छे दिनों में सत्ता के शाह के बेटे ने तो जीमना शुरू ही किया था और उनके डकार लेने से पहले ही प्रतिपक्ष को हिचकी आने लगी। इस हिचकी में सत्ता सुख की पुरानी यादों का ज्वारभाटा उमड़ रहा है, लेकिन अच्छे दिनों की उबासी को डकार तक तो पहुंचने तो दीजिए। आप तो जीम गए और डकार भी नहीं ली। अब डकार आ रही है तो यह तृप्ति का ईमानदारी से प्रकटीकरण है। उबासी से इच्छा जागती है और डकार से तृप्ति हो जाती है। अब अच्छे दिनों के उबासी से डकार तक के सफर को निर्विघ्न बनाने के लिए ही पॉजिटिव इंडिया का निर्माण किया जा रहा है। ऐसा इंडिया, जहां बिना किसी निंदा या आलोचना या उलहाना के लिए अच्छे दिनों की उबासी को डकार तक पहुंचाया जा सकेगा। लोकतंत्र में उबासी लेने का अधिकार है तो उबासी लेने वाले को डकार लेने से कैसे रोका जा सकता है। क्या उबासी और डकार को अभिव्यक्ति या जीने के अधिकार से अलग किया जा सकता है? फिर उबासी और डकार इन लोकतांत्रिकअधिकारों से इन नैसर्गिक अधिकार है। इसे न तो वोटों से परास्त किया सकता है और न ही इसे किसी भय से रोका जा सकता है। इस पर अंकुश लगा पाना जब किसी के वश में ही नहीं है तो फिर इसको लेकर हो-हल्ला क्यों?
http://epaper.newstodaypost.com/1455832/NewsTodayJaipur/05-12-2017#page/6/1
न्यूज टुडे में 5 दिसंबर, 2017 को प्रकाशित व्यंग्य

No comments:

Post a Comment