Monday, 11 December 2017

स्वच्छ भारत क्रांति में महिलाएं - डॉ. हनुमान गालवा


देश में हर बदलाव, क्रांति या आंदोलन में महिलाएं अग्रणी रही हैं। स्वच्छ भारत क्रांति में भी एक जागरूक महिला ने अपनी बकरियां बेचकर घर में स्वच्छ शौचालय बनवा कर अपना योगदान दिया। इसी तरह एक नवविवाहिता ससुराल में शौचालय नहीं होने पर रूठकर पीहर चली गई। इस नवविवाहित की ससुराल वापसी को भी स्वच्छ भारत क्रांति के प्रेरक अध्याय में शामिल किया जा सकता है। इन दोनों महिलाओं के योगदान को स्वच्छ भारत क्रांति में स्वर्णिम अध्याय के रूप में दर्ज करने की तैयारी है। जाहिर है, अब बच्चों को न केवल इन महिलाओं के योगदान को पढ़ाया जाएगा,बल्कि सरकारी नौकरी के लिए आयोजित होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं में भी इस संबंध में अहम सवाल पूछे जा सकते हैं। मसलन, बकरियां बेचकर शौचालय बनवाने वाली महिला के संदर्भ में पूछा जा सकता है कि शौचालय बनवाने के लिए महिला को चार बकरियां बेचनी पड़ी तो शौचालय के इस्तेमाल के लिए सालभर पानी के जुगाड़ के लिए उसे कितनी और बकरियां बेचनी पड़ेंगी? या फिर उसे यदि सरकारी मदद नहीं मिलती तो शौचालय बनवाने के लिए कितनी और बकरियां बेचनी पड़ती। गुणा-भाग के आधार पर यह भी लेखा-जोखा तैयार करवाया जा सकता है कि एक व्यक्ति को पीने के लिए यदि प्रतिदिन दस लीटर पानी की जरूरत है तो शौचालय के इस्तेमाल से देश में पानी की खपत कितनी बढ़ जाएगी। इसी तरह नवविवाहता की ससुराल वापसी के अध्याय से सवाल तैयार किया जा सकता है कि यदि महिला को पीने के लिए घर में चार घड़े पानी लाना पड़ता है तो अब शौचालय में इस्तेमाल के लिए उसे कितने घड़े पानी लाना पड़ेगा? ऐसे सवालों से क्रिएटीविटी को बढ़ाया जा सकता है कि नवविवाहिता की गृहस्थी बचाने के लिए सरकारी मदद के उपाय सुझाइए? घर में शौचालय बनने से पहले और बाद की स्थिति का सामाजिक-आर्थिक-मनोवैज्ञानिक सर्वेक्षण भी करवाया जा सकता है कि अब ज्यादा चर्चा किस विषय पर करते हैं- ए. भ्रष्टाचार,बी. महंगाई, सी. बेरोजगार तथा डी. शौचालय। इस तरह के सर्वेक्षण के आधार पर सरकारी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश में महंगाई, बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं पर काबू पा लिया गया। भ्रष्टाचार मुक्ति केइस उपाय का तुरंत पेटेंट करवा लेना चाहिए, ताकि योग की तरह इससे भी रोजगार का संयोग तैयार किया जा सके। वैसे अब देश के सामने केवल एकमात्र चुनौती है- खुले में शौच।  इस चुनौती से पार पाने के लिए स्वच्छ भारत क्रांति की परिकल्पना को साकार किया जाना जरूरी है।
दिसंबर, 2017 को प्रकाशित व्यंग्य
http://epaper.newstodaypost.com/c/24423653

Tuesday, 5 December 2017

तीन साल में तीन भारत, फिर भी महाभारत - डॉ. हनुमान गालवा

अच्छे दिनों की सरकार में केवल अच्छी ही बातें होनी चाहिए। अच्छे दिनों की सरकार के साढ़े तीन साल में छह माह तो स्वागत-सत्कार में बीत गए। शेष तीन साल में तीन भारत बना दिए। लोकसभा चुनाव के दौरान अच्छे दिनों ने उड़ान भरी। चुनाव परिणाम से लगे पंखों ने अच्छे दिनों की उड़ान को गति दी। अच्छे दिनों का आगाज मेक इन इंडिया से हुआ। न्यू इंडिया में अच्छे दिनों का उल्लास परवान चढ़ा। अब पॉजिटिव इंडिया पॉजिटिव एनर्जी लेकर अच्छे दिनों ने अंगड़ाई ली है। इस अंगड़ाई की आहट में अच्छे दिनों को अनूभूत किया जा सकता है कि निंदा से परे अब केवल अच्छी बातें ही होनी चाहिए। यानी कि अच्छे दिनों के इस मौसम में अच्छे दिनों के निर्णय को लेकर कोई सवाल नहीं उठाए जाने चाहिए। अच्छे दिनों को लेकर किसी को कोई संशय नहीं होना चाहिए। किसी को अंगुली उठाकर अच्छे दिनों की अनुभूति में खलल डालने का कोई हक नहीं बनता है। अच्छे दिन आए हैं तो अच्छे दिनों का कुछ ठहराव भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। ऐसे तो हर बदलाव के साथ अच्छे दिन आते हैं और बिना बदलाव के हवा भी हो जाते हैं। अच्छे दिनों के ठहराव के लिए अच्छे दिनों को टिकाऊ बनाना जरूरी है। आलोचना से अब अच्छे दिन बिदकने लगे हैं। लिहाजा आलोचना पर अंकुश जरूरी हो गया है। जब तीन साल में तीन-तीन भारत बना दिए तो फिर अच्छे दिनों को लेकर महाभारत क्यों? पहले सत्ता की थाली में जंवाई जीम रहे थे। अब अच्छे दिनों में सत्ता के शाह के बेटे ने तो जीमना शुरू ही किया था और उनके डकार लेने से पहले ही प्रतिपक्ष को हिचकी आने लगी। इस हिचकी में सत्ता सुख की पुरानी यादों का ज्वारभाटा उमड़ रहा है, लेकिन अच्छे दिनों की उबासी को डकार तक तो पहुंचने तो दीजिए। आप तो जीम गए और डकार भी नहीं ली। अब डकार आ रही है तो यह तृप्ति का ईमानदारी से प्रकटीकरण है। उबासी से इच्छा जागती है और डकार से तृप्ति हो जाती है। अब अच्छे दिनों के उबासी से डकार तक के सफर को निर्विघ्न बनाने के लिए ही पॉजिटिव इंडिया का निर्माण किया जा रहा है। ऐसा इंडिया, जहां बिना किसी निंदा या आलोचना या उलहाना के लिए अच्छे दिनों की उबासी को डकार तक पहुंचाया जा सकेगा। लोकतंत्र में उबासी लेने का अधिकार है तो उबासी लेने वाले को डकार लेने से कैसे रोका जा सकता है। क्या उबासी और डकार को अभिव्यक्ति या जीने के अधिकार से अलग किया जा सकता है? फिर उबासी और डकार इन लोकतांत्रिकअधिकारों से इन नैसर्गिक अधिकार है। इसे न तो वोटों से परास्त किया सकता है और न ही इसे किसी भय से रोका जा सकता है। इस पर अंकुश लगा पाना जब किसी के वश में ही नहीं है तो फिर इसको लेकर हो-हल्ला क्यों?
http://epaper.newstodaypost.com/1455832/NewsTodayJaipur/05-12-2017#page/6/1
न्यूज टुडे में 5 दिसंबर, 2017 को प्रकाशित व्यंग्य