Thursday, 24 April 2014

पीएम के भाषण का गुणा-भाग - डॉ. हनुमान गालवा


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पीएम के भाषण का गुणा-भाग
- डॉ. हनुमान गालवा
हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दस साल में एक हजार भाषण दिए। गणितीय गणना के हिसाब से प्रधानमंत्री ने औसतन हर तीसरे दिन में एक भाषण दिया। इन भाषणों से देश को कोई फायदा हुआ या नहीं, लेकिन गणित को इन भाषणों से रुचिकर बनाया जा सकता है। मनमोहन सिंह गणित के प्रति बच्चों में बढ़ती अरुचि को लेकर प्रधानमंत्री रहते हुए चिंतित रहे। अपनी इस चिंता को गणित दिवस पर हर साल 22 दिसंबर को अपने भाषण में भी प्रकट करते है। वर्ष 2012 को गणित वर्ष और श्रीनिवास रामानुज की जयंती को राष्ट्रीय गणित दिवस के रूप में मनाने की उपलब्धि भी निर्विवाद रूप से उनके ही खाते में दर्ज है। लिहाजा गणित को रुचिकर बनाने की चिंता का गुणा-भाग किया जा सकता है। अपने कार्यकाल में अब तक दिए गए कुल एक हजार भाषणों में चार भाषण (गणित दिवस की एक घोषणा तथा गणित दिवस पर तीन उद्बोधन) गणित को रुचिकर बनाने की चिंता पर केन्द्रित रहे। प्रधानमंत्री के भाषणों के चिंतन से गणित की चिंता को विश्लेषित किया जाए तो चिंता का 0.4 प्रतिशत हिस्सा गणित को रुचिकर बनाने के हिस्से में आता है। उनकी चिंता का निदान भी उनकी भाषण में मिलता है। यह अचरज की बात है कि इस ओर अभी तक किसी का ध्यान क्यों नहीं गया। खैर, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। बच्चों को जोड़, बाकी, गुणा, भाग, औसत और प्रतिशत इन भाषणों से सिखाकर गणित को रुचिकर बनाया जा सकता है। मसलन, कुछ सवाल तैयार किए गए जा सकते हैं। हमारे प्रधानमंत्री ने दस साल में एक हजार भाषण दिए। बताइए, दस साल में स्वाधीनता दिवस पर दिए गए भाषण निकाल दिए जाएं तो शेष कितने रहेंगे? हर तीसरे दिन में प्रधानमंत्री एक भाषण देते हैं तो बताई बताइए 1200 भाषण पूरे करने के लिए उनका कार्यकाल कितना बढ़ाना पड़ेगा? महंगाई पर संसद में दिए उनके 12 बार दिए गए जवाब को भी इन भाषणों में जोड़ दिया जाए तो बताइए उन्होंने प्रतिदिन कितने भाषण दिए? प्रत्येक भाषण औसतन 45 मिनट का माना जाए तो बताइए उन्होंने कुल कितना भाषण दिया? कुल भाषण को दिन, सप्ताह और साल में बदलकर बताइए? माना कि हर भाषण में औसतन उन्होंने सोनिया गांधी के नाम का तीन बार उल्लेख किया तो बताइए उन्होंने अपने इन हजार भाषणोंं में सोनिया गांधी का कितनी बार नाम लिया? माना कि अमेरिका के राष्ट्रपति एक दिन में तीन और हमारे प्रधानमंत्री तीन दिन में एक भाषण देते हैं तो बताइए दस दिन में अमेरिकी राष्ट्रपति के बराबर आने के लिए हमारे प्रधानमंत्री को अपने औसतन भाषण से कितने ज्यादा देने पड़ेंगे?

डेली न्यूज, जयपुर में 24 अप्रेल, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य

Sunday, 20 April 2014

नाक पर मुक्का और अहिंसा - डॉ. हनुमान गालवा

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नाक पर मुक्का और अहिंसा
 - डॉ. हनुमान गालवा
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कह गए थे कि कोई एक थप्पड़ मारे तो उसके सामने
दूसरा गाल कर दो। उनकी बात ठीक है, मगर कोई नाक पर मुक्का मारे तो क्या
करें? अहिंसा की ढाल तो वही है, लेकिन हिंसा का प्रकार बदल गया। हिंसा के
आकार-प्रकार के अनुरूप अहिंसा की ढाल में वैल्यू एडीशन की आवश्यकता है।
कोई एक कान खींचे तो उसके सामने दूसरा कान किया जा सकता है। कोई एक आंख
फोड़े तो उसकी आत्मा की शांति के लिए उसके सामने दूसरी आंख की जा सकती
है। कोई एक टांग तोड़े तो उसे कहा जा सकता है कि चल दूसरी भी तोड़ दे। कम
से कम चलने-फिरने के झंझट से तो मुक्ति मिलेगी। कोई एक हाथ मरोड़े तो
उसके सामने दूसरा हाथ किया जा सकता है। बात को जनसभा में नेताओं पर फेंके
जा रहे जूते के संदर्भ में कही जाए तो जूता फेंकने वाले से कहा जा सकता
है कि दूसरा भी फेंक दे। कम से कम जूते की जोड़ी तो सलामत रहेगी। बात कान
खींचने, बांह मरोडऩे, आंख फोडऩे या टांग तोडऩे या जूता फेंकने तक सीमित
होती तो चिंता की कोई बात नहीं। नाक पर मुक्का चलने लगा तब समस्या महंगाई
की तेरह बेकाबू हो गई है। इस समस्या के निदान के लिए करने को अनशन भी
किया जा सकता है और चिंतन-मनन के लिए संगोष्ठी भी आयोजित की जा सकती है।
नाक दो होते तो एक नाक पर मुक्का लगते ही दूसरा नाक आगे करके हिंसा के
प्रहार को अहिंसा की ढाल से थामा जा सकता था, लेकिन आखिर नाक तो एक ही है
ना! अब या तो दूसरी कृत्रिम नाक उगाई जाए या फिर नाक के क्षेत्र को
अहिंसा की परिधि से बाहर रखा जाए। निदान का कोई उपाय नहीं सूझे तो
गांधीजी के बंदरों से मदद ली जा सकती है। गांधीजी के तीन बंदरों में से
एक अपनी आंख बचा रहा है, दूसरा अपने कान बचा रहा है और तीसरा अपना मुंह
बचा रहा है।...ताकि  सरकार की तरह अपनी सुविधा के अनुसार चाहे तब देख सके
और चाहे तब आंख मूंद सके।  उनके पास एक चौथे बंदर को भी प्रतिष्ठित किया
जा सकता है, जो नाक पर हाथ रखकर नाक की सलामती का संदेश दे सके। कान भी
जीतने  पर खोलकर विजय का सिंहनाद सुन सके और हारने पर कान बंद करके हारकर
भी जीत का आनंद अनूभूत कर सके। मुंह का बचा रहना भी इसलिए जरूरी है,ताकि
सत्ता मिलने पर जी भरकर खाया जा सके। नाक की हिफाजत भी उस पर हाथ रखकर की
जानी चाहिए, ताकि सूंघकर पता लगाया जा सके कि घोटाले का प्रसाद खुद खाए
या फिर जनता को भी कुछ मखाणे बांटे जाएं। हालांकि कहने वाले कह सकते हैं
कि नकटे का नाक तो कटने पर बढ़ता है तो फिर नेताओं की नाक की की सुरक्षा
की क्या जरूरत?
न्यूज टुडे जयपुर में 19 अप्रेल, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य 
https://www.facebook.com/hanuman.galwa   
 

Friday, 18 April 2014

अच्छे दिन आने वाले हैं - डॉ. हनुमान गालवा



http://dailynewsnetwork.epapr.in/259338/Daily-news/18-04-2014#page/8/1

अच्छे दिन के
कुछ उपाय
- डॉ. हनुमान गालवा
अच्छे दिन आने वाले हैं। वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में सब्जियां उगाने की तकनीक विकसित कर ली है। सब्जियों की बाड़ी आसमान में होगी तो सब्जियों के भाव अपने आप जमीन पर जाएंगे। सब्जियों के भाव आसमान नहीं छू सकेंगे। आसमान से धरती पर सब्जियां गिरेंगी, तो भाव की दिशा एकदम उलट जाएगी। भाव नियंत्रण के वैज्ञानिकों के इस आर्थिक दृष्टिकोण सभी के अच्छे दिन का सुखद कोण साबित हो सकता है। सब्जी लाने को श्रीमतीजी कहे तो सब्जी मंडी जाने के बजाय थैला छत पर रखकर कहा जा सकता है कि सब्जियां गिरे तब नीचे ले आना। फिर भी, कोई शिकायत रहे तो कहा जा सकता है कि सब्जियों के लिए आसमान की ओर छलांग लगाने से तो रहा। प्रेमिका कहे तो फिर आसमान से सब्जी तोड़कर लाने या छलांग लगाने में से एक विकल्प चुनना पड़ेगा। आसमान में सब्जियों की खेती से सरकार भी फील गुड कर सकती है। सब्जियों के लिए आसमान में खेत काटे जा सकते हैं। सब्सिडी बांटी जा सकती है।
सब्जियों का समर्थन मूल्य भी घोषित किया जा सकता है, ताकि ऊंचे दामों पर खरीदकर सस्ते में बेचकर सरकार अपना और अपनों का कल्याण कर सके। कालाधन वापस लाने में भी यह विधि कारगर है। इससे कालाधन भी वापस सकता है और कालेधन वालों के भी अच्छे दिन आ सकते हैं। चूंकि खेती पर कोई कर नहीं लगता है। लिहाजा नेताओं और उद्योगपतियों को सब्जियां उगाने के लिए रियासती दरों पर हवाई खेत अलॉट किए जा सकते हैं। अघोषित आय को आसमान में उगाई सब्जियों से अर्जित आय बताकर धन के कालेपन को उजाला जा सकता है। वायदा कारोबार और सट्टा बाजार की मंडिया भी आसमान में विकसित की जा सकती है, ताकि सटोरियों के भी अच्छे दिन आ सकें। आसमान में चौथ वसूली चौकियां स्थापित कर खाकी के भी अच्छे दिन लाए जा सकते हैं। हवाई सर्वेक्षण में माहिर सर्वे कम्पनियों से आसमान मेें खेती की संभावना पर सर्वे करवाया जा सकता है। इन सर्वे के आधार पर संभावनाओं के दोहन के लिए एग्रीकल्चर रिसर्च संस्थानों के हवाई शोध केन्द्र स्थापित किए जा सकते हैं, जिससे कृषि वैज्ञानिक भी महसूस कर सकें कि उनकी अच्छे दिन आने वाले हैं। अच्छे दिन लाने के प्रयासों की हवाई ऑडिट से इन उम्मीदों को एक ठोस आधार प्रदान किया जा सकता है कि अच्छे दिन आने वाले हैं।
डेली न्यूज, जयपुर
पेज- 6, दिनांक 18 अप्रेल, 2014




Tuesday, 15 April 2014

राह दिखाता नया मॉडल - डॉ. हनुमान गालवा

न्यूज टुडे, जयपुर में 15 अप्रेल, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य- राह दिखाता नया मॉडल
http://epaper.newstodaypost.com/257926/Newstoday-Jaipur/15-04-2014#page/5/2
राह दिखाता नया मॉडल
 - डॉ. हनुमान गालवा
चुनावी मंथन में प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार के विवाह का खाना भर
गया। अब वे कुंआरे नहीं रहे। कुंआरे तो वे पहले भी नहीं थे, लेकिन एक
भ्रम बना हुआ था कि उनको अविवाहित माना जाए या विवाहित? वैवाहिक स्थिति
का कॉलम खाली छोड़ते रहने से यह भ्रम गहराता जा रहा था। इस गहराते भ्रम
के बीच उनके कुंआरेपन का कोहरा छंटने के साथ ही एक पतिव्रत्ता के सिंदूर
को सम्मान मिल गया। इस सम्मान के सांस्कृतिक विमर्श पर चिंतन-मनन किया जा
सकता है। गुजरात के विकास मॉडल की तर्ज पर इसे भी एक विवाह मॉडल के रूप
में आगे बढ़ाया और भुनाया जा सकता है। पार्टी चाहे तो इस पर अपना
दृष्टिकोण पत्र पर भी जारी कर सकती है या केवल घोषणा से भी काम चलाया जा
सकता है। खैर, उनकी पार्टी इसे भुनाए या नहीं, लेकिन घोटालों के सरदार की
पार्टी के कुंआरे युवराज ने इसे चुनावी मुद्दा बना लिया। खबरिया चैनलों
को चर्चा के लिए मसाला मिल गया, जिससे कई फ्लेवर में चटनी तैयार करके
टीआरपी का तड़का लगाया जा सकता है। इसे सुखद आश्चर्य माना जा सकता है कि
'गे मैरिजÓ की पैरवी के इस दौर विवाह की चर्चा राष्ट्रव्यापी बहस का रूप
लेती जा रही है। इसके विविध आयामों पर चर्चा हो रही है। इस बहस को खबरिया
चैनल एक सार्थक दिशा दे सकते हैं। मसलन, इस पर रायशुमारी भी करवाई जा
सकती है कि अब पति स्वरूप स्वीकारने के बाद राजनीति की लीला को विराम
देकर पत्नी सेवा करनी चाहिए या फिर इस स्वीकारोक्ति को ही पत्नी की
संतुष्टि मानते हुए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर टॉवल बिछाने के बाद ही
अश्वमेज्ञ यज्ञ की पूर्णाहुति मानी जानी चाहिए। राष्ट्रपति पद को सुशोभित
करने वाली पहली महिला ने अपने नाम के साथ पति का नाम जोड़कर पति का
सम्मान बढ़ाया। उससे पहले राजस्थान की महामहिम भी रहीं, लेकिन उनके नाम
में पतिनाम का कहीं कोई प्रभाव नहीं दिखा। खैर, पतिदेवता की प्राण
प्रतिष्ठा हो सकती है तो पत्नी को सम्मान देकर समानता की नई मिसाल पेश
क्यों नहीं की जानी चाहिए? लिहाजा इस दिशा में भी सोचा जा सकता है कि
प्रधानमंत्री बनने पर अपने नाम के साथ पत्नी का नाम भी जोड़कर भारतीय
संस्कृति का नया अध्याय क्यों नहीं लिखा जा सकता है? वैसे भी घर छोड़कर
संन्यास लेने पर नया नाम देने की परम्परा रही है तो संन्यास से फिर
गृहस्थी बनने पर भी नया नाम क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? नया नाम हो सकता
है- जसोदाबेनपति नरेन्द्र मोदी। इसे सुविधा के हिसाब से लघु भी किया जा
सकता है। मसलन, अंग्रेजी में लिखना हो तो जे.बी.पी.एन. मोदी लिखा जा सकता
है। और इसे संघदृष्टि से भी लिखा जा सकता है- ज.बे.प.न. मोदी।