Tuesday, 10 December 2013

डॉ. हनुमान गालवा - जबरिया डुगडुगी बजाने में मजबूरी का नाच


http://newstoday.epapr.in/196480/Newstoday-Jaipur/10-12-2013#page/5/1
जबरिया डुगडुगी बजाने में मजबूरी का नाच
 - डॉ. हनुमान गालवा
पेट्रोल के बाद अब सरकार डीजल को भी अपने नियंत्रण से मुक्त करने जा रही है। आखिर सब्सिडी की डुगडुगी से सरकार कब तक काम चलाती? अब पेट्रोल की तरह डीजल भी आजाद होकर हवा में उछल-कूद का आनंद ले सकेगा। अपनी डुगडुगी बजा सकेगा। अपनी डुगडुगी पर महंगाई को भी नचा सकेगा? जब महंगाई भी अपने हिसाब से नाच रही है, तो फिर पेट्रोल-डीजल को अपनी खुशी के इजहार से रोका जाना क्या समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है? आतंक, अलगाव और नक्सली हिंसा के दानव भी बिना किसी नियंत्रण के तांडव कर रहे हैं। आखिर सरकार किस-किस को नियंत्रण में रखे? भ्रष्टाचार की पूंछ तक पकड़ में नहीं आ रही है, तो समझ लेना चाहिए कि सरकार की पकड़ ढीली हो चुकी है। योगी बाबा और सरकार के बीच पकड़म-पकड़ाई के खेेल में सरकार मुकदमों का शतक लगाने की ओर अग्रसर है, लेकिन बाबा आउट होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। बयानबाजी की कैंची से ही पकड़ पाती तो सरकार दाऊद इब्राहिम को कभी का पकड़ चुकी होती। सरकार भी आखिर क्या करे? सरकार को सरकार बने रहने के लिए भी गठबंधन को नियंत्रण में रख पाना कोई हंसी का खेल नहीं है। यह तो सत्ता के फेविकोल का मजबूत जोड़ है, वरना घटक दलों की दरारों में सरकार कहीं दूरबीन से भी नहीं दिखती। सरकार अपने को बचाने के लिए केवल डुगडुगी बजा रही है और खुद ही नाच-नाच कर घटक दलों को रिझा रही है। डुगडुगी बंद हुई नहीं कि सरकार के थिरकते पांवों ने जवाब दिया नहीं। सरकार ने नाचना बंद कर दिया तो घटक दलों की ताली यानी समर्थन भी बंद। जब सरकार खुद नाचने को विवश है तो फिर नाचने और नचाने को अपनी नियति मान लेने में ही समझादारी है। जो नचा सकता है, वह नाचेगा और जो नाच सकता है, वही अपने आपको बचा सकता है। बस, डुगडुगी की आवाज सुनते रहिए, समझते रहिए और उस पर अमल करते रहिए। नाचना और नचाना ही असल में लोकतंत्र है। चुनाव में उम्मीदवार नाचते हैं और मतदाता देखते हैं। मतदाताओं को जिसके ठुमके ज्यादा अच्छे लगेंगे, वोट भी वही ज्यादा ले जाएगा। चुनाव परिणाम के बाद नाचने वाला नचाने लगता है और नचाने वाला मतदाता नाचने। लोकतंत्र के नाच में किरदार और परिस्थिति बदल जाती है, लेकिन नाच का स्वरूप नहीं बदलता है। डुगडुगी बजाने वाला भी बदल जाता है, लेकिन नाच चलता रहता है। इसी चलते रहने में लोकतंत्र गतिमान है। और लोकतंत्र को बचाने और चलाने के लिए डुगडुगी बजाना जरूरी है।
न्यूज टुडे, जयपुर में 10 दिसंबर, 2013 को प्रकाशित व्यंग्य

Monday, 2 December 2013

गरीब का स्पर्श - डॉ. हनुमान गालवा


http://newstoday.epapr.in/192881/Newstoday-Jaipur/02-12-2013#page/5/1
गरीब का स्पर्श

- डॉ. हनुमान गालवा
पारस का स्पर्श पाकर लोहा भी सोना बन जाता है। यह हम पीढिय़ों से सुनते आए हैं। इस पर बिना देखे ही यकीन करते आए हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम आदमी जिसे भी छूता है, वह महंगी हो जाती है यानी आम आदमी से दूर हो जाती है। अमेरिका तक इस धारणा को प्रमाणित कर चुका है। अमेरिका से बात चली कि भारतीयों की खुराक बढ़ जाने से दुनिया में महंगाई बढ़ी है। हमारे विशेषज्ञों ने इस अमेरिकी निष्कर्ष में अपनी राय जोड़ दी कि गांव वाले ज्यादा खाते हैं। विशेषज्ञों की इस राय से सरकार भी इनकार नहीं कर सकी। तुरंत अपनी पीठ थपथपा दी कि नरेगा से क्रय शक्ति बढ़ी है तो लोग खाएंगे ही। सरकार ने लोगों को जीमने का कानूनन अधिकार भी दे दिया, ताकि सरकार की तरह लोग भी खूब खा सकें। युवराज ने अपनी पार्टी के नारे को भी अपडेट कर दिया। बात दो रोटी से चार पर पहुंचते ही युवराज को डकार आ गई और कह दिया भरपेट रोटी खाओ और उनकी पार्टी को जिताओ। अब कहा जाने लगा है कि सब्जियों के भाव इसलिए बढ़े, क्योंकि गरीब दो-दो सब्जियां खाने लगे हैं। भला यह भी कोई बात हुई? जीने के अधिकार में रोजगार की तरह रोटी पाने और खाने के अधिकार में सब्जियां खाने का अधिकार भी निहित है। सरकार चाहे तो इस बारे में विधि विशेषज्ञों की राय ले सकती है या फिर कोई आयोग या समिति गठित कर यह सुनिश्चित कर सकती है। जरूरत पड़े तो कानून भी बनाया जा सकता है, क्योंकि आजकल हर समस्या के समाधान मेें कानून बनाकर ठंडे बस्ते में डालने का टोटका कारगर साबित हो रहा है। इस रोटी के अधिकार का रेसपोंस ठीक रहा, तो शायद सरकार अगले चुनाव के बाद नई सरकार रोटी के साथ सब्जी खाने का अधिकार भी दे दे। आम आदमी रोटी के हाथ लगता है, तो रोटी महंगी हो जाती है। सब्जी की ओर देखता है कि उसके भाव आसमान छूने लगते हैं। प्याज भी आखिर कब तक गरीब बना रहता? प्याज ने भी गरीबों से दूरी बढ़ाकर अपने आपको विशिष्ट बना लिया है। गाड़ी की सोचता है तो पेट्रोल-डीजल महंगा हो जाता है। सोना चाहता है तो 'सोनाÓ महंगा हो जाता है। बच्चों को स्कूल भेजने की सोचने से ही पढ़ाई महंगी हो जाती है। और तो और जिसे वह चुनकर भेजता है, वह भी जीतने के बाद आम आदमी से दूर हो जाता है। इसमें उसका कोई दोष नहीं है। यह तो आम आदमी के ईवीएम में उसके बटन पर ज्यादा स्पर्श के अभिशाप का नतीजा है। इस अभिशाप से दोषमुक्ति का कोई उपाय ढूंढ़ा जाना चाहिए। एक तो गाइडलाइन जारी की जा सकती है कि आम आदमी किसे स्पर्श करे और किसे नहीं। दूसरा, आम आदमी से शपथपत्र लिए जाएं कि वे गाइडलाइन की पालना करेंगे।

न्यूज टुडे जयपुर के 2/12/2013 के संस्करण में प्रकाशित व्यंग्य