Sunday, 25 November 2018
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Saturday, 3 November 2018
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सीबीएसई पढ़ा रहा भाजपा सांप्रदायिक-हिंदूवादी पार्टी
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http://epaper.dailynews360.com/1716075/Daily-news/Daily-news#page/1/1
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Tuesday, 27 March 2018
Saturday, 17 March 2018
Sunday, 4 March 2018
Friday, 2 March 2018
मैं कुछ बोलूंगा तो किसी को अखरेगा : भाभड़ा
हनुमान गालवा से बातचीत.....मैं कुछ बोलूंगा तो किसी को अखरेगा : भाभड़ा
पूर्व
विधानसभा अध्यक्ष तथा वरिष्ठ भाजपा नेता की राय में काले कानून के मुद्दे
पर राजस्थान सरकार की हार लोकतंत्र की जीत है। मीडिया की अवेयरनेस तथा जनता
के दबाव से जनविरोधी कानून मूर्त रूप लेने से रुक गया
राजस्थान
विधानसभा के अध्यक्ष रहे वरिष्ठ भाजपा नेता हरिशंकर भाभड़ा इन दिनों से
राजनीति से दूर एकांतवास है। भ्रष्ट अफसर और नेताओं को बचाने के लिए लाए गए
अध्यादेश को लेकर राजस्थान सरकार की हुई किरकिरी के मुद्दे पर डेली न्यूज
ने उनसे बात की तो वे बोले- मैं कुछ बोलूंगा तो किसी को अखरेगा, लेकिन इस
मुद्दे पर सरकार की हार लोकतंत्र की जीत है। उनसे बातचीत के प्रमुख अंश -
- भ्रष्ट अफसर और नेताओं को बचाने के लिए लाए गए अध्यादेश की जन प्रतिनिधियों विशेषकर प्रतिपक्ष को भनक क्यों नहीं लग पाई?
यह
तो संभव नहीं लगता है कि सरकार कोई अध्यादेश लाए और किसी भी भनक भी नहीं
लगे। अध्यादेश के प्रारूप से लेकर स्वीकृति और अधिसूचना जारी होने तक की
पूरी प्रक्रिया में जन प्रतिनिधियों की सक्रिय भागीदारी होती है। इस मुद्दे
पर कोई क्यों नहीं बोला या फिर कोई क्यों मौन रहा, इस पर बहस का कोई फायदा
नहीं है। सत्ता में बैठे लोगों की अपनी विवशता है, इस पर किसी को कुछ कहने
का मलतब विवाद को जन्म देना है। मैं किसी विवाद में नहीं पडऩा चाहता हूं,
क्योंकि वर्तमान में सरकार में मेरी कोई भूमिका नहीं है।
- जब मीडिया ने सरकार की बदनीयती को उजागर किया, तब चूक सुधारने के बजाय अध्यादेश को विधेयक का स्वरूप देने का दुस्साहस क्यों किया?
भ्रष्ट
अफसर और नेताओं को बचाने के लिए लाए गए अध्यादेश के प्रकरण का फिलहाल सुखद
पटाक्षेप हो गया है। मीडिया की अवेयरनेस तथा जन दबाव के चलते सरकार अपनी
मनमानी नहीं कर पाई। यह लोकतंत्र की जीत है। अब सरकार अध्यादेश या विधेयक
क्यों लाई, यह तो सरकार ही जानें, लेकिन जनभावना के अनुरूप पीछे हटना या
किसी दिशा में आगे बढऩे में कोई बदनीयती नहीं होती है। सरकार कब क्या
करेगी, यह तो सरकार में बैठे लोगों को ही तय करना होता है।
- विधेयक का सत्तारूढ़ पार्टी में ही विरोध हुआ, तब भी सरकार ने पीछे हटने के बजाय विधेयक को प्रवर समिति को क्यों सौंप दिया?
भ्रष्ट
अफसर और नेताओं को बचाने संबंधी विधेयक को प्रवर समिति को सौंपने का मतलब
ही यह था कि सरकार इसे रोकना चाहती है। प्रवर समिति विधेयक में आपत्तियों
का निस्तारण करके उसे जनभावना के अनुकूल बना सकती है या फिर चाहे तो उसके
निरस्त करने का भी सुझाव दे सकती है। प्रक्रिया को लेकर किसी को कोई आपत्ति
नहीं होनी चाहिए। बस, हमें यह देखना चाहिए उस प्रयास का परिणाम जनभावना के
अनुरूप सामने आया है या नहीं?
- कोई भी महत्वपूर्ण कानून बनाने से पहले क्या व्यापक स्तर पर विचार-विमर्श या राय-शुमारी नहीं की जानी चाहिए?
वैसे
तो लोकशाही में जनादेश से सरकार बनती है और सरकार के निर्णय को ही जन
भावना मान लिया जाता है। किसी मुद्दे पर बार-बार जनता की राय लेना संभव
नहीं लगता है, पर कई बार जनभावना को समझने में चूक हो जाती है या फिर किसी
मजबूरीवश जनभावना की अनदेखी कर दी जाती है तो उस निर्णय का विरोध शुरू हो
जाता है। विरोध को भी लोकतंत्र में एक तरह की राय माना जाता है और उस विरोध
के निदान को ही जनभावना का आदर मान लिया जाता है।
- कई देशों में कोई भी कानून बनाने या कानून में संशोधन से पहले जनमत सर्वेक्षण करवाए जाते है? क्या ऐसा अपने यहां भी संभव है?
हां,
कई देशों में ऐसी व्यवस्था है कि कोई भी कानून बनाने या कोई निर्णय बदलने
का फैसले आम लोगों की राय शुमारी से की जाती है। ऐसा जिन देशों में होता
है,वह क्षेत्रफल और आबादी के लिहाज से बहुत छोटे है। हमारे देश में कई
प्रकार की विविधता है। हमारा अधिकांश समय तो सभी को साथ लेकर चलने में ही
जाया होता है।
- अध्यादेश के पीछे लोकतांत्रिक अवधारणा क्या है?
अध्यादेश
सरकार का संवैधानिक अधिकार है। उसका स्वरूप और समय सरकार में बैठे लोगों
के विवेक पर निर्भर करता है। चुनाव में मतदाता अच्छे काम के लिए सरकार को
वापसी के रूप में शाबाशी भी देते हैं तो गड़बड़ी करने पर कान भी खींचने में
कोई संकोच नहीं करते हैं। सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोगों के कोई भी
निर्णय लेते या कानून बनाते समय यह स्थिति दिमाग में होती है।
इस पूरे प्रकरण से आगामी विधानसभा चुनाव में क्या भाजपा को नुकसान होगा?
कोई
भी सरकार कोई अध्यादेश या विधेयक लाती है और विरोध के चलते उसे अपने कदम
वापस खींचने पड़ते हैं तो एक यह संदेश तो जाता ही है कि सरकार दबाव में है।
इस दबाव को मतदाता किस रूप में लेते हैं, यह मतदाताओं की मानसिकता पर
निर्भर करता है। वैसे राजनीतिक मुद्दों पर बोलना बंद कर दिया है। मैं कुछ
बोलूंगा तो किसी को अखरेगा?
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