गोवंश के संरक्षण की चिंता बयानों और प्रदर्शनों में दिखती है, लेकिन बिदकते गोपालकों तथा उछलते कथित गोरक्षकों के हिंसक तांडव में गोवंश केवल गोशालाओं तक सिमटता जा रहा है। हालात यही रहे तो गोवंश या तो गोशालाओं में दिखेगा या फिर सडक़ों पर आवारा घूमता।
कथित गोरक्षकों का तांडव कानून व्यवस्था को सीधी चुनौती है। गोरक्षा की आड़ में समुदाय विशेष के पशुपालकों को निशाना बनाने से सांप्रदायिक सौहार्द भी खतरे में हैं। सवाल यह उठ रहा कि क्या हिंसा की राजनीति से गोवंश बच जाएगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कानून को हाथ में नहीं लेने की बार-बार चेतावनी के बावजूद गोरक्षा को लेकर बढ़ती हिंसा चिंताजनक है। पिछले साल जुलाई माह में दिल्ली से सटे दादरी के बिसाहड़ा गांव में गोमांस की अफवाह के चलते अखलाक को मौत के घाट उतार देने के दुस्साहस के बाद बीफ को लेकर शुरू हुई बयानबाजी और बीफ फेस्टिवल जैसे भौंडे आयोजनों ने हिंसा की राजनीति को उकसाया। राजस्थान में गोरक्षा की आड़ मे दो लोगों की निर्मम हत्या के बाद गोरक्षा के कथित प्रयासों को सांप्रदायिकता का रूप देने की कोशिश सांप्रदायिक सौहार्द के माहौल को बिगाड़ रही है। अब हिंसा की राजनीति के भंवर में फंसी गाय के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। सवाल यह है कि क्या केवल चिंता, हिंसा और त्योहार विशेष पर पूजा-अर्चना या फिर राह चलते रिजके की पुली डाल देने के पुण्य से ही गाय बच जाएगी? अपने बाड़े में गाय पालने और गोशाला या बाहर गाय की पूजा या गुड़-रोटी खिलाने में फर्क है।
दरअसल, कृषि के यांत्रीकरण के चलते हाशिए पर आ जाने की गोवंश की उपयोगिता कम हो गई। ट्रैक्टर बैलों को लील गया। बैलों की उपयोगिता गौण हो गई तो गाय के बछड़ों की भी कोई कद्र नहीं रही। फर्टिलाइजर का इस्तेमाल बढ़ जाने से गाय का गोबर उपयोगी होते हुए भी अनुपयोगी हो गया। गाय चूंकि धार्मिक आस्था से जुड़ी है। लिहाजा, गाय के गोबर से बने उपले, गोमूत्र केवल धार्मिक कार्यक्रम या शुद्धिकरण के उपयों में उपयोगी है। गोदान भी अब पूरी तरह नकद में बदल चुका है। कन्या या ब्राह्मण गाय की एवज में यथाशक्ति नकद राशि ही दी जाती है। गाय की यह प्रतीकात्मक उपयोगिता धर्म-पुण्य की खानापूर्ति को दर्शाते हैं। दूध की मात्रा ज्यादा होने से गाय की बजाय किसान भी भैंस पालने में रुचि लेने लगे हैं। खेती-बाड़ी में उपयोगिता को लेकर गौण हो जाने के बाद दूध उत्पादन की प्रतिस्पद्र्धा में भी नहीं टिक पाने से अब गोवंश गोशालाओं में धकेल दिया गया है। ज्यादातर गोशालाएं भी चंदे पर आश्रित है। कहने को कहा जा सकता है कि किसानों को गाय पालनी चाहिए या कोई सिरफिरा यह भी कह सकता है कि खेती के साथ गोपालन को कानूनी रूप से बाध्यकारी बना दिया जाना चाहिए। प्रवचन या केवल ज्ञान बघारने से ही किसी को गाय पालने के लिए तैयार कर पाना मुश्किल है। केवल धर्म की दुहाई से भी लंबे समय तक कोई घाटे का सौदा नहीं झेल सकता है। चूंकि बाजार विशुद्ध रूप से मांग और आपूर्ति आधारित होता है। लिहाजा किसान भी वही बोएगा, जिसमें ज्यादा मुनाफा दिखता हो या फिर वही दुधारू पशु पालेगा, जो उसे लाभ दिलाए। बाजार की चोट देखिए कि गांव में अब कहीं कोई बैलगाड़ी चलती नहीं दिखती है। बाड़ों में गाय बांधने को शान में गुस्ताखी माना जाना लगा है। जिस बाड़े में भैंस नहीं होती है, उस परिवार को आर्थिक रूप से कमजोर आंका जाता है। ‘बाड़ानिकाली’ के बाद गायों के लिए सुरक्षित ठिकाना केवल गोशाला बची है। गांव की गोशाला सरकारी अनुदान पर आश्रित है। ग्रामवासी गोशाला में चारा डलवाकर अपने पुण्यकर्म की इतिश्री मान लेते हैं। ऐसे में बिदकते गोपालक और उछलते कथित गोभक्तों को देखकर नहीं लगता है कि गोवंश बच पाएगा?
दरअसल, दिक्कत यह है कि गोवंश को लेकर चिंतन-मनन करने वाले गोपालन को पुण्य कर्म से जोड़ देते हैं। गोपालक उनके इस चिंतन को यह कहते हुए खारिज कर देते हैं कि इस पुण्य से पेट नहीं भरता। इस चिंता और गोवंश के प्रतिकूल हालातों के बीच कथित गोरक्षकों ने गोसेवा की राजनीति को अपने अनुकूल बना लिया है। गोसेवा को लेकर उछलकूद कर रहे कथित गोसेवकों को न तो वस्तुस्थिति का भान है और न ही उनको गोपालन से कोई सीधा सरोकार है। डेढ़ दशक पहले नागौर पशु मेले से बछड़ों के ले जाती मालगाड़ी को गोटन रेलवे स्टेशन पर कथित गोसेवकों ने रुकवाया था। मामला न्यायालय तक पहुंचा, लेकिन ढाई सौ के करीब बछड़ों ने चारे-पानी के अभाव में दम तोड़ दिया। इस प्रसंग का उल्लेख इसलिए जरूरी है कि गो तस्करी के की आशंका को लेकर पकड़े या पकड़वाए गए गोवंश की सार संभाल के दायित्व को लेकर भी सोचा जाना चाहिए। पशुमेले लगभग खत्म हो चुके हैं और पशु व्यापारियों पर निरंतर हमले हो रहे हैं तो जाहिर है कि इस कर्म में लगे लोग भी इससे तौबा कर लेंगे। अब गांव में कई किसान भेड़ या बकरी बूचडख़ाने के पाप से बचने के लिए नहीं पालते हैं। अब यही भय गोवंश को लेकर सताने लगा है कि गोपालन से किसानों का मोहभंग होने लगा है। गोपालन के सवाल पर लोग पूछने लगे हैं कि गाय तो दूध देगी, लेकिन बछड़ों का क्या होगा? संख्या बढ़ेगी तो बेचेंगे या फिर बिकेंगे नहीं तो मजबूरी में खुले छोड़ेंगे। दोनों ही स्थिति में गोवंश सुरक्षित नहीं है तो फिर गाय को कोई क्यों पालेगा? धर्म और पुण्य की तमाम दुहाई के बावजूद सच यह है कि गाय राजनीति के भंवर में इस कदर उलझ गई कि उसे बचाने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। गांव की गोशालाओं के पोषण में गोसेवा से ज्यादा आवारा गोवंश से फसल बचाने की चिंता दिख रही है। कुछेक गोशालाओं को छोड़ दें तो ज्यादातर गोशालाएं दानदाताओं के सहयोग से चल रही है। कुछ गोशालाओं ने गाय के दूध, घी और गो चिकित्सा अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। इन उत्पादों के बावजूद ये गोशालाएं आत्मनिर्भर नहीं होना यह दर्शाता है कि या तो हमारे प्रयासों में कमी है या फिर हमारी नीयत में खोट है।
गोवंश बचाना है तो हमें न केवल गोशालाओं को दान और दया से मुक्ति दिलाकर आत्मनिर्भर बनाना होगा, बल्कि किसान के बाड़े में भी गाय को प्रतिष्ठा का सूचक और आर्थिक मदद का आधार बनाना होगा। केवल राजनीति और बयानबाजी से गोवंश को नुकसान ही होगा। इससे न केवल द्वेष बढ़ेगा, बल्कि गोपालन से लोगों का पूरी तरह मोहभंग हो जाएगा। ऐसी स्थिति में गाय केवल पोस्टर और नारों में ही जीवित रह पाएगी। गाय हमारी आस्था है तो उस आस्था को बचाए और बनाए रखने के लिए रचनात्मक प्रयासों पर ध्यान देना होगा। केवल कानूनी कवच से ही गाय को नहीं बचाया जा सकता है। गाय को बचाने के लिए गाय की उपयोगिता को साबित करना पड़ेगा। बेशक,गाय का दूध और मूत्र अमृत है। गाय का गोबर भी बेहतर खाद है। गोबर का इस्तेमाल आंगन को कीटाणुमुक्त बनाने में भी इस्तेमाल होता रहा है। अब गाय का दूध, घी, मक्खन, दही, छाछ तथा गोमूत्र के चिकित्सकीय इस्तेमाल की दिशा में गति दी जा सकती है। किसानों को गो उत्पादों को बेचने का उचित मंच मिल जाए और उत्पाद आर्थिक मजबूती देने लगेंगे तो गाय पालन के प्रति आकर्षण क्यों नहीं बढ़ेगा।
(hanumangalwa@gmail.com) http://epaper.dailynews360.com/c/24012542 डेली न्यूज में 26 नवंबर,2017 को प्रकाशित आलेख
कथित गोरक्षकों का तांडव कानून व्यवस्था को सीधी चुनौती है। गोरक्षा की आड़ में समुदाय विशेष के पशुपालकों को निशाना बनाने से सांप्रदायिक सौहार्द भी खतरे में हैं। सवाल यह उठ रहा कि क्या हिंसा की राजनीति से गोवंश बच जाएगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कानून को हाथ में नहीं लेने की बार-बार चेतावनी के बावजूद गोरक्षा को लेकर बढ़ती हिंसा चिंताजनक है। पिछले साल जुलाई माह में दिल्ली से सटे दादरी के बिसाहड़ा गांव में गोमांस की अफवाह के चलते अखलाक को मौत के घाट उतार देने के दुस्साहस के बाद बीफ को लेकर शुरू हुई बयानबाजी और बीफ फेस्टिवल जैसे भौंडे आयोजनों ने हिंसा की राजनीति को उकसाया। राजस्थान में गोरक्षा की आड़ मे दो लोगों की निर्मम हत्या के बाद गोरक्षा के कथित प्रयासों को सांप्रदायिकता का रूप देने की कोशिश सांप्रदायिक सौहार्द के माहौल को बिगाड़ रही है। अब हिंसा की राजनीति के भंवर में फंसी गाय के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। सवाल यह है कि क्या केवल चिंता, हिंसा और त्योहार विशेष पर पूजा-अर्चना या फिर राह चलते रिजके की पुली डाल देने के पुण्य से ही गाय बच जाएगी? अपने बाड़े में गाय पालने और गोशाला या बाहर गाय की पूजा या गुड़-रोटी खिलाने में फर्क है।
दरअसल, कृषि के यांत्रीकरण के चलते हाशिए पर आ जाने की गोवंश की उपयोगिता कम हो गई। ट्रैक्टर बैलों को लील गया। बैलों की उपयोगिता गौण हो गई तो गाय के बछड़ों की भी कोई कद्र नहीं रही। फर्टिलाइजर का इस्तेमाल बढ़ जाने से गाय का गोबर उपयोगी होते हुए भी अनुपयोगी हो गया। गाय चूंकि धार्मिक आस्था से जुड़ी है। लिहाजा, गाय के गोबर से बने उपले, गोमूत्र केवल धार्मिक कार्यक्रम या शुद्धिकरण के उपयों में उपयोगी है। गोदान भी अब पूरी तरह नकद में बदल चुका है। कन्या या ब्राह्मण गाय की एवज में यथाशक्ति नकद राशि ही दी जाती है। गाय की यह प्रतीकात्मक उपयोगिता धर्म-पुण्य की खानापूर्ति को दर्शाते हैं। दूध की मात्रा ज्यादा होने से गाय की बजाय किसान भी भैंस पालने में रुचि लेने लगे हैं। खेती-बाड़ी में उपयोगिता को लेकर गौण हो जाने के बाद दूध उत्पादन की प्रतिस्पद्र्धा में भी नहीं टिक पाने से अब गोवंश गोशालाओं में धकेल दिया गया है। ज्यादातर गोशालाएं भी चंदे पर आश्रित है। कहने को कहा जा सकता है कि किसानों को गाय पालनी चाहिए या कोई सिरफिरा यह भी कह सकता है कि खेती के साथ गोपालन को कानूनी रूप से बाध्यकारी बना दिया जाना चाहिए। प्रवचन या केवल ज्ञान बघारने से ही किसी को गाय पालने के लिए तैयार कर पाना मुश्किल है। केवल धर्म की दुहाई से भी लंबे समय तक कोई घाटे का सौदा नहीं झेल सकता है। चूंकि बाजार विशुद्ध रूप से मांग और आपूर्ति आधारित होता है। लिहाजा किसान भी वही बोएगा, जिसमें ज्यादा मुनाफा दिखता हो या फिर वही दुधारू पशु पालेगा, जो उसे लाभ दिलाए। बाजार की चोट देखिए कि गांव में अब कहीं कोई बैलगाड़ी चलती नहीं दिखती है। बाड़ों में गाय बांधने को शान में गुस्ताखी माना जाना लगा है। जिस बाड़े में भैंस नहीं होती है, उस परिवार को आर्थिक रूप से कमजोर आंका जाता है। ‘बाड़ानिकाली’ के बाद गायों के लिए सुरक्षित ठिकाना केवल गोशाला बची है। गांव की गोशाला सरकारी अनुदान पर आश्रित है। ग्रामवासी गोशाला में चारा डलवाकर अपने पुण्यकर्म की इतिश्री मान लेते हैं। ऐसे में बिदकते गोपालक और उछलते कथित गोभक्तों को देखकर नहीं लगता है कि गोवंश बच पाएगा?
दरअसल, दिक्कत यह है कि गोवंश को लेकर चिंतन-मनन करने वाले गोपालन को पुण्य कर्म से जोड़ देते हैं। गोपालक उनके इस चिंतन को यह कहते हुए खारिज कर देते हैं कि इस पुण्य से पेट नहीं भरता। इस चिंता और गोवंश के प्रतिकूल हालातों के बीच कथित गोरक्षकों ने गोसेवा की राजनीति को अपने अनुकूल बना लिया है। गोसेवा को लेकर उछलकूद कर रहे कथित गोसेवकों को न तो वस्तुस्थिति का भान है और न ही उनको गोपालन से कोई सीधा सरोकार है। डेढ़ दशक पहले नागौर पशु मेले से बछड़ों के ले जाती मालगाड़ी को गोटन रेलवे स्टेशन पर कथित गोसेवकों ने रुकवाया था। मामला न्यायालय तक पहुंचा, लेकिन ढाई सौ के करीब बछड़ों ने चारे-पानी के अभाव में दम तोड़ दिया। इस प्रसंग का उल्लेख इसलिए जरूरी है कि गो तस्करी के की आशंका को लेकर पकड़े या पकड़वाए गए गोवंश की सार संभाल के दायित्व को लेकर भी सोचा जाना चाहिए। पशुमेले लगभग खत्म हो चुके हैं और पशु व्यापारियों पर निरंतर हमले हो रहे हैं तो जाहिर है कि इस कर्म में लगे लोग भी इससे तौबा कर लेंगे। अब गांव में कई किसान भेड़ या बकरी बूचडख़ाने के पाप से बचने के लिए नहीं पालते हैं। अब यही भय गोवंश को लेकर सताने लगा है कि गोपालन से किसानों का मोहभंग होने लगा है। गोपालन के सवाल पर लोग पूछने लगे हैं कि गाय तो दूध देगी, लेकिन बछड़ों का क्या होगा? संख्या बढ़ेगी तो बेचेंगे या फिर बिकेंगे नहीं तो मजबूरी में खुले छोड़ेंगे। दोनों ही स्थिति में गोवंश सुरक्षित नहीं है तो फिर गाय को कोई क्यों पालेगा? धर्म और पुण्य की तमाम दुहाई के बावजूद सच यह है कि गाय राजनीति के भंवर में इस कदर उलझ गई कि उसे बचाने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। गांव की गोशालाओं के पोषण में गोसेवा से ज्यादा आवारा गोवंश से फसल बचाने की चिंता दिख रही है। कुछेक गोशालाओं को छोड़ दें तो ज्यादातर गोशालाएं दानदाताओं के सहयोग से चल रही है। कुछ गोशालाओं ने गाय के दूध, घी और गो चिकित्सा अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। इन उत्पादों के बावजूद ये गोशालाएं आत्मनिर्भर नहीं होना यह दर्शाता है कि या तो हमारे प्रयासों में कमी है या फिर हमारी नीयत में खोट है।
गोवंश बचाना है तो हमें न केवल गोशालाओं को दान और दया से मुक्ति दिलाकर आत्मनिर्भर बनाना होगा, बल्कि किसान के बाड़े में भी गाय को प्रतिष्ठा का सूचक और आर्थिक मदद का आधार बनाना होगा। केवल राजनीति और बयानबाजी से गोवंश को नुकसान ही होगा। इससे न केवल द्वेष बढ़ेगा, बल्कि गोपालन से लोगों का पूरी तरह मोहभंग हो जाएगा। ऐसी स्थिति में गाय केवल पोस्टर और नारों में ही जीवित रह पाएगी। गाय हमारी आस्था है तो उस आस्था को बचाए और बनाए रखने के लिए रचनात्मक प्रयासों पर ध्यान देना होगा। केवल कानूनी कवच से ही गाय को नहीं बचाया जा सकता है। गाय को बचाने के लिए गाय की उपयोगिता को साबित करना पड़ेगा। बेशक,गाय का दूध और मूत्र अमृत है। गाय का गोबर भी बेहतर खाद है। गोबर का इस्तेमाल आंगन को कीटाणुमुक्त बनाने में भी इस्तेमाल होता रहा है। अब गाय का दूध, घी, मक्खन, दही, छाछ तथा गोमूत्र के चिकित्सकीय इस्तेमाल की दिशा में गति दी जा सकती है। किसानों को गो उत्पादों को बेचने का उचित मंच मिल जाए और उत्पाद आर्थिक मजबूती देने लगेंगे तो गाय पालन के प्रति आकर्षण क्यों नहीं बढ़ेगा।
(hanumangalwa@gmail.com) http://epaper.dailynews360.com/c/24012542 डेली न्यूज में 26 नवंबर,2017 को प्रकाशित आलेख