वायदे बन जाते जाते हैं कायदे
- डॉ. हनुमान गालवा
कहानी उस माटी की जहां वचनबद्धता परम्परा बन जाती है। ऐसे वाकये जहां एक बार नहीं कई-कई बार यह साबित होता है कि प्रतिबद्धता यहां की रीत रही है, जो बाद में जनचेतना में शामिल हो गई। ऐसे पांच वाकये, जिनकी दुनिया कायल है
हल्दीघाटी के युद्ध ने पराजय के बावजूद राजस्थान को देश-दुनिया में एक खास पहचान दी। इस खासियत को हम आज भी देशभक्ति की मिसाल (महाराणा प्रताप), दानवीरता (भामाशाह) और वचनबद्धता (गाडोलिया लुहारों की घुमक्कड़ी) की परिपाटी बतौर संजोए हुए हैं। होने को अकबर और महाराणा प्रताप के बीच हुआ युद्ध विशुद्ध रूप से दो राज्य सत्ताओं के बीच संघर्ष था, लेकिन स्वाधीनता के लिए दिखाए गए अद्भुत साहस ने इस युद्ध में महाराणा प्रताप को पराजित होने के बावजूद लोकमानस में एक अनूठे और महान विजेता के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। चूंकि अकबर की सेना के सेनापति मानसिंह और महाराणा प्रताप की सेना के सेनापति हाकिम खान सूर थे। लिहाजा इस युद्ध को किसी भी रूप में धर्म की दृष्टि से विश्लेषित नहीं किया जा सकता है।
इतिहासकारों में इस पर मतभेद हो सकता कि अकबर की सेना की ताकत के आगे महाराण प्रताप की सेना कितने समय टिक पाई या फिर महाशक्ति से टकराना महाराणा प्रताप की कूटनीतिक नाकामी थी? लेकिन, यह निर्विवाद है कि महाराणा प्रताप की तरह सभी छोटे-बड़े शासक आक्रांताओं के खिलाफ खड़े होने का उस समय साहस दिखाते तो यहां न तो मुगल शासन होता और न ही अंग्रेज पांव जमा पाते। महाराणा प्रताप के पराक्रम और देशभक्ति के अध्याय पर हल्दीघाटी युद्ध के साथ ही पूर्ण विराम नहीं लग जाता है। मेवाड़ की आजादी के लिए घास की रोटी खाकर वन-वन भटकने के उनके संघर्ष ने उन्हें जननायक बना दिया। साथ ही, मेवाड़ के स्वाधीनता समर में अपना सर्वस्व दान करके भामाशाह दानवीरता के पर्याय बन गए। आज भी दानवीर को भामाशाह के संबोधन से सम्मानित किया जाता है।
योद्धा बन गए यायावर
महाराणा प्रताप के साथ मेवाड़ को आजाद करवाने तक घर बसाकर नहीं बैठने का संकल्प लेने वाले उनके सैनिक आज भी गाडोलिया लुहार के रूप में घुमक्कड़ी जीवन जी रहे हैं। गाडोलिया लुहारों के इस अनूठे संकल्प से देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी अनभिज्ञ नहीं थे। स्वाधीनता के बाद गाडोलिया लुहारों को समझाया गया कि देश के साथ अब मेवाड़ भी आजाद है, लेकिन वे महाराणा प्रताप के साथ लिए गए अपने वचन से डिगे नहीं। नेहरू जी के दखल से गाडोलिया लुहारों को घुमक्कड़ी से मुक्ति दिलाने के लिए 'मेवाड़ विजय की नौटंकीÓ और उनकी 'जीत के स्वांगÓ के प्रयास भी फलीभूत नहीं हो पाए। गाडोलिया लुहारों की घुमक्कड़ी अब वचनबद्धता की परिपाटी बन चुकी है। इस परिपाटी का निर्वहन गाडोलिया लुहारों की अस्मिता से जुड़ गया है।
चार में सात फेरों की आहुति
हिंदू रवायत में विवाह की रस्म सात फेरों से पूर्ण होती है, लेकिन राजस्थान में चार फेरों में ही सात फेरों की पूर्णाहुति मान ली जाती है। इस परिपाटी की पृष्ठभूमि में लोकदेवता पाबूजी (पूरी कथा भीतर के पन्नों पर) बलिदान गाथा है। कहते हैं कि एक महिला को दिए वचन की अनुपालना में पाबूजी अपने विवाह की रस्म चार फेरों में ही पूर्ण करके गायों की रक्षा के लिए युद्ध में चल दिए। युद्ध में पाबूजी वीरगति को प्राप्त हुए और तभी से आज तक राजस्थान के जाये-जन्मे के विवाह में चार फेरों में ही सात फेरों की पूर्णाहुति मान लेने की परम्परा चल पड़ी है। विवाह के समय गाए जाने वाले लोकगीतों में इस परिपाटी की स्वीकार्यता देखिए-
पैलै तो फेरै लाडली दादोसा री पोती
दुजै तो फेरै लाडली बाबोसा री बेटी
अगणे तो फेरै काका री भतीजी
चौथै तो फेरै लाडली होई रे पराई।
यानी पहले फेरे में लाडली दादाजी की पोती, दूसरे फेरे में बाबोसा की बेटी और तीसरी फेरे में चाचा की भतीजी। ...और चौथे फेरे में लाडली हो जाती है पराई।
हमीर हठ
पुरातन काल से ही हठ तीन प्रकार (राज हठ,बाल हठ और त्रिया हठ) के सुने और माने गए हैं, लेकिन मध्यकाल में राजस्थान इन तीन हठों में जुड़ गया चौथा हमीर हठ -
सिंह गमन तत्पुरूष वचन,
कदली फले इक बार।
त्रिया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार॥
यानी राजा हम्मीर देव दिया हुआ वचन निभाना अपना पहला कर्तव्य समझता था। साथ ही जिस प्रकार कदली का फल पेड़ को एक बार ही फलता है, उसी प्रकार राजा हम्मीर को क्रोध भी विजय प्राप्त होने पर ही शांत होता था। त्रिया अर्थात स्त्री को शादी के वक्त एक बार ही तेल चढ़ाने की रस्म होती है, उसी प्रकार हम्मीर भी किसी कार्य को बार-बार दोहराने की बजाए एक ही बार में पूरा करना महत्वपूर्ण समझता था। हम्मीर देव चौहान का हठ उसकी निडरता का प्रतीक रहा है।
सौहार्द के प्रतीक पांच पीर
राजस्थान में पांच ऐसे लोक देवता हुए हैं, जिन्होंने गो रक्षा के साथ दलित उद्धार और सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम कर मानवता का संदेश दिया। इन लोक देवताओं को हिंदू पूजते हैं तो मुस्लिम इन्हें पीर मानते हैं। पूजा और मन्नत में ऐसा सांप्रदायिक सौहार्द अनुकरणीय है। पाबूजी, हड़बूजी, रामदेवजी, मंगलिया जी और मेहा जी को राजस्थान में पांच पीर कहा जाता है, जिनके प्रति हिंदुओं और मुस्लिमों में बराबर आस्था है। लोक देवता-पीर की सांप्रदायिक सौहार्द के इस परिपाटी पर जन सहमति देखिए-
पाबू, हड़बू, रामदे, मांगलिया, मेहा।
पांचो पीर पधारज्यो, गोगाजी जेहा॥
डेली न्यूज के खूशबू में 30 मार्च को प्रकाशित
http://dailynewsnetwork.epapr.in/762897/khushboo/30-03-2016#page/1/1
- डॉ. हनुमान गालवा
कहानी उस माटी की जहां वचनबद्धता परम्परा बन जाती है। ऐसे वाकये जहां एक बार नहीं कई-कई बार यह साबित होता है कि प्रतिबद्धता यहां की रीत रही है, जो बाद में जनचेतना में शामिल हो गई। ऐसे पांच वाकये, जिनकी दुनिया कायल है
हल्दीघाटी के युद्ध ने पराजय के बावजूद राजस्थान को देश-दुनिया में एक खास पहचान दी। इस खासियत को हम आज भी देशभक्ति की मिसाल (महाराणा प्रताप), दानवीरता (भामाशाह) और वचनबद्धता (गाडोलिया लुहारों की घुमक्कड़ी) की परिपाटी बतौर संजोए हुए हैं। होने को अकबर और महाराणा प्रताप के बीच हुआ युद्ध विशुद्ध रूप से दो राज्य सत्ताओं के बीच संघर्ष था, लेकिन स्वाधीनता के लिए दिखाए गए अद्भुत साहस ने इस युद्ध में महाराणा प्रताप को पराजित होने के बावजूद लोकमानस में एक अनूठे और महान विजेता के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। चूंकि अकबर की सेना के सेनापति मानसिंह और महाराणा प्रताप की सेना के सेनापति हाकिम खान सूर थे। लिहाजा इस युद्ध को किसी भी रूप में धर्म की दृष्टि से विश्लेषित नहीं किया जा सकता है।
इतिहासकारों में इस पर मतभेद हो सकता कि अकबर की सेना की ताकत के आगे महाराण प्रताप की सेना कितने समय टिक पाई या फिर महाशक्ति से टकराना महाराणा प्रताप की कूटनीतिक नाकामी थी? लेकिन, यह निर्विवाद है कि महाराणा प्रताप की तरह सभी छोटे-बड़े शासक आक्रांताओं के खिलाफ खड़े होने का उस समय साहस दिखाते तो यहां न तो मुगल शासन होता और न ही अंग्रेज पांव जमा पाते। महाराणा प्रताप के पराक्रम और देशभक्ति के अध्याय पर हल्दीघाटी युद्ध के साथ ही पूर्ण विराम नहीं लग जाता है। मेवाड़ की आजादी के लिए घास की रोटी खाकर वन-वन भटकने के उनके संघर्ष ने उन्हें जननायक बना दिया। साथ ही, मेवाड़ के स्वाधीनता समर में अपना सर्वस्व दान करके भामाशाह दानवीरता के पर्याय बन गए। आज भी दानवीर को भामाशाह के संबोधन से सम्मानित किया जाता है।
योद्धा बन गए यायावर
महाराणा प्रताप के साथ मेवाड़ को आजाद करवाने तक घर बसाकर नहीं बैठने का संकल्प लेने वाले उनके सैनिक आज भी गाडोलिया लुहार के रूप में घुमक्कड़ी जीवन जी रहे हैं। गाडोलिया लुहारों के इस अनूठे संकल्प से देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी अनभिज्ञ नहीं थे। स्वाधीनता के बाद गाडोलिया लुहारों को समझाया गया कि देश के साथ अब मेवाड़ भी आजाद है, लेकिन वे महाराणा प्रताप के साथ लिए गए अपने वचन से डिगे नहीं। नेहरू जी के दखल से गाडोलिया लुहारों को घुमक्कड़ी से मुक्ति दिलाने के लिए 'मेवाड़ विजय की नौटंकीÓ और उनकी 'जीत के स्वांगÓ के प्रयास भी फलीभूत नहीं हो पाए। गाडोलिया लुहारों की घुमक्कड़ी अब वचनबद्धता की परिपाटी बन चुकी है। इस परिपाटी का निर्वहन गाडोलिया लुहारों की अस्मिता से जुड़ गया है।
चार में सात फेरों की आहुति
हिंदू रवायत में विवाह की रस्म सात फेरों से पूर्ण होती है, लेकिन राजस्थान में चार फेरों में ही सात फेरों की पूर्णाहुति मान ली जाती है। इस परिपाटी की पृष्ठभूमि में लोकदेवता पाबूजी (पूरी कथा भीतर के पन्नों पर) बलिदान गाथा है। कहते हैं कि एक महिला को दिए वचन की अनुपालना में पाबूजी अपने विवाह की रस्म चार फेरों में ही पूर्ण करके गायों की रक्षा के लिए युद्ध में चल दिए। युद्ध में पाबूजी वीरगति को प्राप्त हुए और तभी से आज तक राजस्थान के जाये-जन्मे के विवाह में चार फेरों में ही सात फेरों की पूर्णाहुति मान लेने की परम्परा चल पड़ी है। विवाह के समय गाए जाने वाले लोकगीतों में इस परिपाटी की स्वीकार्यता देखिए-
पैलै तो फेरै लाडली दादोसा री पोती
दुजै तो फेरै लाडली बाबोसा री बेटी
अगणे तो फेरै काका री भतीजी
चौथै तो फेरै लाडली होई रे पराई।
यानी पहले फेरे में लाडली दादाजी की पोती, दूसरे फेरे में बाबोसा की बेटी और तीसरी फेरे में चाचा की भतीजी। ...और चौथे फेरे में लाडली हो जाती है पराई।
हमीर हठ
पुरातन काल से ही हठ तीन प्रकार (राज हठ,बाल हठ और त्रिया हठ) के सुने और माने गए हैं, लेकिन मध्यकाल में राजस्थान इन तीन हठों में जुड़ गया चौथा हमीर हठ -
सिंह गमन तत्पुरूष वचन,
कदली फले इक बार।
त्रिया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार॥
यानी राजा हम्मीर देव दिया हुआ वचन निभाना अपना पहला कर्तव्य समझता था। साथ ही जिस प्रकार कदली का फल पेड़ को एक बार ही फलता है, उसी प्रकार राजा हम्मीर को क्रोध भी विजय प्राप्त होने पर ही शांत होता था। त्रिया अर्थात स्त्री को शादी के वक्त एक बार ही तेल चढ़ाने की रस्म होती है, उसी प्रकार हम्मीर भी किसी कार्य को बार-बार दोहराने की बजाए एक ही बार में पूरा करना महत्वपूर्ण समझता था। हम्मीर देव चौहान का हठ उसकी निडरता का प्रतीक रहा है।
सौहार्द के प्रतीक पांच पीर
राजस्थान में पांच ऐसे लोक देवता हुए हैं, जिन्होंने गो रक्षा के साथ दलित उद्धार और सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम कर मानवता का संदेश दिया। इन लोक देवताओं को हिंदू पूजते हैं तो मुस्लिम इन्हें पीर मानते हैं। पूजा और मन्नत में ऐसा सांप्रदायिक सौहार्द अनुकरणीय है। पाबूजी, हड़बूजी, रामदेवजी, मंगलिया जी और मेहा जी को राजस्थान में पांच पीर कहा जाता है, जिनके प्रति हिंदुओं और मुस्लिमों में बराबर आस्था है। लोक देवता-पीर की सांप्रदायिक सौहार्द के इस परिपाटी पर जन सहमति देखिए-
पाबू, हड़बू, रामदे, मांगलिया, मेहा।
पांचो पीर पधारज्यो, गोगाजी जेहा॥
डेली न्यूज के खूशबू में 30 मार्च को प्रकाशित
http://dailynewsnetwork.epapr.in/762897/khushboo/30-03-2016#page/1/1