Thursday, 8 October 2015
Saturday, 4 April 2015
social media>> hindi vyang>>सोशल मीडिया का समाजवाद - डॉ. हनुमान गालवा
सोशल मीडिया का समाजवाद
- डॉ. हनुमान गालवा
फेसबुक पर गुरु जी की आई फ्रेंड रिक्वेस्ट ने मेरी दुविधा बढ़ा दी। रिक्वेस्ट कन्फर्म करता तो गुरु जी मेरे फ्रेंड हो जाते और कन्फर्म नहीं करता गुरु-शिष्य संबंधों में खटास आ जाने का अंदेशा बना रहता। जब कोई विकल्प नहीं दिखा तो मैंने गुरु जी की फ्रेंड रिक्वेस्ट पर कन्फर्म ऑप्शन पर क्लिक कर दिया। अब फेसबुक पर गुरु जी फ्रेंड बन गए हैं। फेसबुक ने गुरु-शिष्य ही नहीं, बल्कि तमाम रिश्तों को समतल कर दिया। अब फेसबुक पर बेटा, पत्नी, बहन-भाई, माता-पिता या गुरु-शिष्य सभी के सभी फ्रेंड हैं। सोशल मीडिया की चौपाल पर आकर रिश्ते अपने आप समतल हो जाते हैं। रिश्तों का यह एकीकरण ही असल में समाजवाद है।
वैसे भी समाजवाद अब केवल सोशल मीडिया पर बचा है। चूंकि धरती पर समाजवाद मुलायमवाद में कनवर्ट हो चुका है। लिहाजा सोशल मीडिया के समाजवाद से ही कुछ उम्मीदें बची हैं। सोशल मीडिया के समाजवाद ने रिश्तों के झंझट से पूरी तरह मुक्ति दिला दी है। दरअसल, रिश्तों की टेंशन ही समाजवाद की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। इस रोड़े को सोशल मीडिया की चौपाल ने दूर कर दिया है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि समाजवाद के अच्छे दिन आने वाले हैं। आज रिश्ते समतल हुए हैं, तो कल हमारे संकट भी समतल होंगे। लाइक-अनलाइक के ऑप्शन की तरह जीवन में भी दो ही ऑप्शन बचेंगे- हैप्पी और अनहैप्पी। इन ऑप्शन को शेयर करके अपने फ्रेंड के लाइक-अनलाइक के तराजू पर अपनी पीड़ा तौलकर दिल को कुछ तसल्ली दी जा सकती है। सोशल मीडिया ने जिस तरह तमाम सामाजिक-धार्मिक रिश्तों को समेटकर एक ही रिश्ते (फ्रेंड) में परिवर्तित कर दिया है, तो क्या इसी तर्ज पर समस्याओं के पिटारे को समेटा नहीं जा सकता है? स्कूलों का एकीकरण हो रहा है, दलों का विलीनीकरण हो रहा है तो समस्याओं का समानीकरण क्यों नहीं होना चाहिए? योजना आयोग के वास्तु दोष के निवारण के लिए नाम बदलकर नीति आयोग बनाया गया। अब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में वास्तुदोष दिखने लगा है, तो उसके निवारण के उपाय तलाशे जाने लगे हैं। इन तमाम आयोगों को भी सोशल मीडिया के समाजवाद की चक्की में डालकर एक ही प्रॉडक्ट बनाया जा सकता है। इस प्रॉडक्ट को लाइक-अनलाइक के मानदंडों के आधार पर अच्छे दिनों के अनुमान का मास्टर प्लान तैयार किया जा सकता है।
डेली न्यूज जयपुर में 4 अप्रेल, 2015 को प्रकाशित व्यंग्य - सोशल मीडिया का समाजवाद
http://dailynewsnetwork.epapr.in/472381/Daily-news/04-04-2015#page/6/2 http://dailynewsnetwork.epapr.in/472381/Daily-news/04-04-2015#page/6/2
फेसबुक पर गुरु जी की आई फ्रेंड रिक्वेस्ट ने मेरी दुविधा बढ़ा दी। रिक्वेस्ट कन्फर्म करता तो गुरु जी मेरे फ्रेंड हो जाते और कन्फर्म नहीं करता गुरु-शिष्य संबंधों में खटास आ जाने का अंदेशा बना रहता। जब कोई विकल्प नहीं दिखा तो मैंने गुरु जी की फ्रेंड रिक्वेस्ट पर कन्फर्म ऑप्शन पर क्लिक कर दिया। अब फेसबुक पर गुरु जी फ्रेंड बन गए हैं। फेसबुक ने गुरु-शिष्य ही नहीं, बल्कि तमाम रिश्तों को समतल कर दिया। अब फेसबुक पर बेटा, पत्नी, बहन-भाई, माता-पिता या गुरु-शिष्य सभी के सभी फ्रेंड हैं। सोशल मीडिया की चौपाल पर आकर रिश्ते अपने आप समतल हो जाते हैं। रिश्तों का यह एकीकरण ही असल में समाजवाद है।
वैसे भी समाजवाद अब केवल सोशल मीडिया पर बचा है। चूंकि धरती पर समाजवाद मुलायमवाद में कनवर्ट हो चुका है। लिहाजा सोशल मीडिया के समाजवाद से ही कुछ उम्मीदें बची हैं। सोशल मीडिया के समाजवाद ने रिश्तों के झंझट से पूरी तरह मुक्ति दिला दी है। दरअसल, रिश्तों की टेंशन ही समाजवाद की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। इस रोड़े को सोशल मीडिया की चौपाल ने दूर कर दिया है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि समाजवाद के अच्छे दिन आने वाले हैं। आज रिश्ते समतल हुए हैं, तो कल हमारे संकट भी समतल होंगे। लाइक-अनलाइक के ऑप्शन की तरह जीवन में भी दो ही ऑप्शन बचेंगे- हैप्पी और अनहैप्पी। इन ऑप्शन को शेयर करके अपने फ्रेंड के लाइक-अनलाइक के तराजू पर अपनी पीड़ा तौलकर दिल को कुछ तसल्ली दी जा सकती है। सोशल मीडिया ने जिस तरह तमाम सामाजिक-धार्मिक रिश्तों को समेटकर एक ही रिश्ते (फ्रेंड) में परिवर्तित कर दिया है, तो क्या इसी तर्ज पर समस्याओं के पिटारे को समेटा नहीं जा सकता है? स्कूलों का एकीकरण हो रहा है, दलों का विलीनीकरण हो रहा है तो समस्याओं का समानीकरण क्यों नहीं होना चाहिए? योजना आयोग के वास्तु दोष के निवारण के लिए नाम बदलकर नीति आयोग बनाया गया। अब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में वास्तुदोष दिखने लगा है, तो उसके निवारण के उपाय तलाशे जाने लगे हैं। इन तमाम आयोगों को भी सोशल मीडिया के समाजवाद की चक्की में डालकर एक ही प्रॉडक्ट बनाया जा सकता है। इस प्रॉडक्ट को लाइक-अनलाइक के मानदंडों के आधार पर अच्छे दिनों के अनुमान का मास्टर प्लान तैयार किया जा सकता है।
डेली न्यूज जयपुर में 4 अप्रेल, 2015 को प्रकाशित व्यंग्य - सोशल मीडिया का समाजवाद
http://dailynewsnetwork.epapr.in/472381/Daily-news/04-04-2015#page/6/2 http://dailynewsnetwork.epapr.in/472381/Daily-news/04-04-2015#page/6/2
Wednesday, 25 February 2015
pm modi suit controversy and auction hindi vyang नीलामी का समर्थन मूल्य और महंगाई डॉ. हनुमान गालवा
नीलामी का समर्थन मूल्य और महंगाई
- डॉ. हनुमान गालवा
नसीबजादे के कपड़ों की नायाब नीलामी ने अच्छे दिनों की उम्मीद के पंख लगा दिए हैं। महंगाई डायन के कहर से तार-तार हो चुके कपड़ों से अच्छे दिनों की उम्मीद बाहर झांकने को बेताब है। पीपली लाइव की पटकथा भी नसीबजादे के कपड़ों की नीलामी के बाद लिखी जाती, तो नाथा को अपना कर्ज चुकाने के लिए जान देने का प्लान नहीं बनाना पड़ता। वह भी अपने तन पर लटक रहे कपड़ों के अवशेषों की नीलामी से अपना जीवन बचाकर गंगा में डुबकी लगा सकता था, लेकिन अच्छे दिन शायद उसके नसीब में नहीं थे। अब अच्छे दिनों की सरकार है, तो पीपली लाइव के जो नाथा महंगाई डायन से अब तक बचे हुए हैं, उनके जीवन को कपड़ों की नीलामी से बचाया जा सकता है।
नीलामी का राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम घोषित करके लोगों को अच्छे दिनों की अनुभूति का अहसास करवाया जा सकता है। गुणीजन कह सकते हैं कि नसीबवाले के कपड़ों की नीलामी तो निवेश है, लेकिन गरीबों के कपड़े खरीद कर कोई खुद गरीब क्यों बनना चाहेगा? बात तो सोलह आना खरी है, लेकिन सरकार नीलामी का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करके अच्छे दिनों का लुक दे सकती है। सरकार चाहे, तो चीथड़े और कपड़े की नीलामी का समर्थन मूल्य अलग-अलग घोषित कर सकती है, ताकि सरकार पर भेदभाव का कोई आरोप नहीं लगे। सरकार चाहे तो नीलामी में अपने तन के कपड़े बेचने वालों के लिए आधार कार्ड की अनिवार्यता कर सकती है, ताकि नीलामी में कोई फर्जीवाड़े होने की कोई आशंका नहीं रहे। सरकार चाहे तो प्रधानमंत्री जनधन योजना का खाता संख्या लेकर कपड़ों की संख्या के आधार पर समर्थन मूल्य सीधे खाते में जमा करवा सकती है। नीलामी का यह सरकारी कार्यक्रम भी गिनीज बुक में दुनिया के सबसे बड़े नीलामी कार्यकम के रूप में दर्ज हो सकता है। इस नीलामी कार्यक्रम को आकर्षक बनाने के लिए बोली लगाने वालों को विशेष बोनस भी ऑफर किया जा सकता है। मसलन, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा बोली लगाएगा, उसे सरकारी काम-काज के ठेके में वरीयता दी जाएगी। कर्ज माफी योजनाओं को भी नीलामी के इस कार्यक्रम से लिंकअप किया जा सकता है कि तन के सारे कपड़े नीलामी करने वालों को सरकार कपड़े खरीदने के लिए कर्ज देगी, लेकिन खरीदे हुए कपड़े नीलाम होने पर ही ऋण माफी प्रदान की जाएगी।
डेली न्यूज, जयपुर में 26 फरवरी, 2015 को प्रकाशित व्यंग्य- नीलामी का समर्थन मूल्य और महंगाई
http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/4596576
- डॉ. हनुमान गालवा
नसीबजादे के कपड़ों की नायाब नीलामी ने अच्छे दिनों की उम्मीद के पंख लगा दिए हैं। महंगाई डायन के कहर से तार-तार हो चुके कपड़ों से अच्छे दिनों की उम्मीद बाहर झांकने को बेताब है। पीपली लाइव की पटकथा भी नसीबजादे के कपड़ों की नीलामी के बाद लिखी जाती, तो नाथा को अपना कर्ज चुकाने के लिए जान देने का प्लान नहीं बनाना पड़ता। वह भी अपने तन पर लटक रहे कपड़ों के अवशेषों की नीलामी से अपना जीवन बचाकर गंगा में डुबकी लगा सकता था, लेकिन अच्छे दिन शायद उसके नसीब में नहीं थे। अब अच्छे दिनों की सरकार है, तो पीपली लाइव के जो नाथा महंगाई डायन से अब तक बचे हुए हैं, उनके जीवन को कपड़ों की नीलामी से बचाया जा सकता है।
नीलामी का राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम घोषित करके लोगों को अच्छे दिनों की अनुभूति का अहसास करवाया जा सकता है। गुणीजन कह सकते हैं कि नसीबवाले के कपड़ों की नीलामी तो निवेश है, लेकिन गरीबों के कपड़े खरीद कर कोई खुद गरीब क्यों बनना चाहेगा? बात तो सोलह आना खरी है, लेकिन सरकार नीलामी का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करके अच्छे दिनों का लुक दे सकती है। सरकार चाहे, तो चीथड़े और कपड़े की नीलामी का समर्थन मूल्य अलग-अलग घोषित कर सकती है, ताकि सरकार पर भेदभाव का कोई आरोप नहीं लगे। सरकार चाहे तो नीलामी में अपने तन के कपड़े बेचने वालों के लिए आधार कार्ड की अनिवार्यता कर सकती है, ताकि नीलामी में कोई फर्जीवाड़े होने की कोई आशंका नहीं रहे। सरकार चाहे तो प्रधानमंत्री जनधन योजना का खाता संख्या लेकर कपड़ों की संख्या के आधार पर समर्थन मूल्य सीधे खाते में जमा करवा सकती है। नीलामी का यह सरकारी कार्यक्रम भी गिनीज बुक में दुनिया के सबसे बड़े नीलामी कार्यकम के रूप में दर्ज हो सकता है। इस नीलामी कार्यक्रम को आकर्षक बनाने के लिए बोली लगाने वालों को विशेष बोनस भी ऑफर किया जा सकता है। मसलन, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा बोली लगाएगा, उसे सरकारी काम-काज के ठेके में वरीयता दी जाएगी। कर्ज माफी योजनाओं को भी नीलामी के इस कार्यक्रम से लिंकअप किया जा सकता है कि तन के सारे कपड़े नीलामी करने वालों को सरकार कपड़े खरीदने के लिए कर्ज देगी, लेकिन खरीदे हुए कपड़े नीलाम होने पर ही ऋण माफी प्रदान की जाएगी।
डेली न्यूज, जयपुर में 26 फरवरी, 2015 को प्रकाशित व्यंग्य- नीलामी का समर्थन मूल्य और महंगाई
http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/4596576
Sunday, 18 January 2015
सरपंच पद का फैमिली पैक sarpanch pad ka family pack
http://d2na0fb6srbte6.cloudfront.net/read/imageapi/clipimage/420381/50a50d06-0006-42f0-acd8-1578958e89fehttp://d2na0fb6srbte6.cloudfront.net/read/imageapi/clipimage/420381/50a50d06-0006-42f0-acd8-1578958e89fe
सरपंच पद का फैमिली पैक
डॉ. हनुमान गालवा
आठवीं पास के अड़ंगे ने महिलाओं के लिए आरक्षित सरपंच पद को एसपी यानी सरपंच पति के प्रभाव से मुक्ति दिला दी है। इसे महिला सशक्तीकरण का नया आयाम माना जा सकता है। आठवीं पास नई बीनणी को सरपंच पद का प्रत्याशी बनाया, तो उसके साथ सरपंचाई का पैनल स्वत: ही जुड़ गया। पहले महिला के लिए आरक्षित सरपंच पद की प्रत्याशी के पति को स्वाभाविक रूप से अनिर्वाचित सरपंच मान लिया जाता था। अब सरपंच पद पत्नी-पति के जोड़े प्रभाव से बाहर निकलकर फैमिली पैक में तब्दील हो गया है। सरपंच और सरपंचाई के पैनल में अब पत्नी-पति के जोड़े के दिन लद चुके हैं।
अब बहू-ससुर, भाभी-देवर, बहू-जेठ, बेटी-बाप, पोती-दादा....आदि कई प्रभावशाली विशेषण जुड़ गए हैं, जो निर्वाचित सरपंच की भूमिका को कागजी कार्रवाई तक समेटकर खुद सरपंचाई करेंगे। सरंपचाई के इस फैमिली पैक ने महिला सशक्तीकरण के साथ शब्दावली को भी विस्तार दिया है। पहले एसपी यानी सरपंच पति होते थे। अब सरपंच ससुर, सरपंच देवर, सरपंच जेठ, सरपंच दादा, सरपंच पिता, सरपंच काका नए शब्द प्रचलन में आ गए। शब्दकोश का विस्तार हो रहा है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि महिलाओं की ताकत भी बढ़ेगी। सरपंचाई का प्रसाद पति परमेश्वर से बंटते-बंटते पूरे परिवार में बंटने लगा है, तो स्वीकारा जाना चाहिए कि नारी शक्ति का प्रभाव विस्तार पा रहा है। पहले महिला सरपंच चुनी जाती थी, तो केवल पति का महिमामंडन होता था। अब चुनी हुई महिला सरपंच पूरे परिवार के प्रभाव को प्रतिष्ठित करेगी। सरपंच-पति के प्रभाव से सरपंच पद को निजात दिलाने से जो फैमिली पैक सामने आया है, उससे लोकतंत्र में सामूहिक नेतृत्व की स्वीकार्यता बढ़ेगी। इससेे लोकतंत्र का नेटवर्क स्वत: ही अपनी आदर्श स्थिति से कनेक्ट हो जाएगा। पहले महिला सरपंच जीतती थी, तब केवल पति परमेश्वर के अच्छे दिन आते थे। अब पढ़ी-लिखी नई बीनणी सरपंच बनेगी, तो पूरे परिवार के अच्छे दिन आएंगे। गांव में सरपंचाई से किसी एक पूरे परिवार के अच्छे दिन आएंगे, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि पूरे गांव के अच्छे दिन आने में भी अब कोई ज्यादा विलंब नहीं होगा। सरकार ने पति का आधिपत्य तोडऩे के लिए आठवीं पास का पास फेंका, लेकिन इस पासे को फैमिली पैक में तब्दील करके सरपंचाई पर पूरे परिवार का आधिपत्य स्थापित कर दिया।
डेली न्यूज, जयपुर में 19 जनवरी, 2015 प्रकाशित व्यंग्य- सरपंच पद का फैमिली पैक
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