Sunday, 17 November 2013

मुखिया की पीड़ा, सहायक का रोना - डॉ. हनुमान गालवा

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मुखिया की पीड़ा, सहायक का रोना
- डॉ. हनुमान गालवा
हमारे प्रधानमंत्रीजी को शिकायत है कि पुलिस तथा जांच एजेंसी प्रशासनिक तथा नीतिगत मामलों में बिना सबूत के ही दखल दे रही है। पुलिस और जांच एजेंसी कांग्रेस के अनुगामी संगठन होते, तो इनको अपनी हद में रहने के लिए आलाकमान से भी धमकवाया जा सकता था। ये कोई सरकारी अध्यादेश भी नहीं है, जिसे युवराज से फड़वाया जा सके। चुनाव लडऩे वालों के तो टिकट कटवाए जा सकते हैं, लेकिन इनको दखल से रोकने का कोई उपाय नहीं दिख रहा है। कोई उपाय होता तो प्रधानमंत्रीजी शिकायत ही क्यों करते? शिकायत तो हमारे माननीय गृहमंत्री को भी है कि एक आतंककारी संगठन उनका कहना नहीं मानता है। उन्होंने साफ कहा कि यदि आतंकवादी संगठन उनके निर्देशन में काम करता तो देश में दंगे ही दंगे करवाते। उनका कहा उनका ही विभाग नहीं सुनता है तो फिर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि कोई आतंककारी संगठन उनके निर्देश या आदेश मानेगा? गृहमंत्री की तर्ज पर माननीय प्रधानमंत्री भी देशवासियों को आश्वस्त कर सकते हैं कि यदि पुलिस तथा जांच एजेंसी उनके प्रशासनिक और नीतिगत मामले में दखल देना बंद कर दे, तो वे हालात बदल सकते हैं। प्रधानमंत्रीजी की पीड़ा समझ में आती है। वे काम करना चाह रहे हैं, लेकिन उनको काम करने नहीं दिया जा रहा है। कभी वे राजनीति में दाग बचाने के लिए अध्यादेश लाते हैं, तो युवराज उनका अध्यादेश फाड़ देता है। कभी वे महंगाई रोकने के बैठक करते हैं, तो घटक दलों के महारथी बैठक में झगडऩे लगते हैं। प्रधानमंत्रीजी की पीड़ा के निवारण के लिए भी कड़ा कानून बनवाया जा सकता है कि कोई उनको कमजोर नहीं कहेगा, कोई उनकी निंदा नहीं करेगा, कोई उनका कहना मानने से इनकार नहीं करेगा। जो ऐसा करेगा, उसे राष्ट्र विरोधी कृत्य मानते हुए कार्रवाई की जाएगी। दिक्कत केवल यह है कि प्रधानमंत्रीजी की शिकायत दूर की जाए तो केन्द्रीय गृहमंत्री के मन की मुराद की अनदेखी कैसे की जा सकती है? गृहमंत्री को नाराज करके प्रधानमंत्रीजी को खुश कैसे किया जा सकता है। आखिर वे भी देश के पहले दलित गृहमंत्री हैं। ऐसा रास्ता निकाला जाए, जिससे प्रधानमंत्रीजी की शिकायत भी दूर हो जाए और गृहमंत्री को भी कोई शिकवा नहीं रहे कि उनका मंत्रालय भी उनकी बात नहीं मानता है, आतंकवादी संगठन उनकी सुनते नहीं हंै और अब शिकायत निवारण में भी उनकी उपेक्षा। कुल मिलाकर एक ही रास्ता बचता है कि निर्णय आलाकमान पर छोड़ दिया जाए कि किसकी बात में दम है। आलाकमान जो तय करेगा, वह सभी को मंजूर होगा, अन्यथा आलाकमान दम निकालने में समर्थ हैं।

न्यूज टुडे जयपुर में 16 नवंबर, 2013 को प्रकाशित व्यंग्य