न्यूज टुडे, जयपुर में 18 जून, 2013 को प्रकाशित व्यंग्य
सरकार का गुस्सा
- डॉ. हनुमान गालवा सरकार अब कर्मचारियों की शिकायत न तो सुनेगी और न ही देखेगी। यानी सरकार मुंह तो मुहुर्त से ही खोलती है, लेकिन अब कान और आंख भी बंद रखेगी। इस संबंध में केन्द्र के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने बाकायदा फरमान जारी कर दिया। अब कोई भूल से भी प्रधानमंत्री, मंत्री या सचिव स्तर के अधिकारी को शिकायत करने की गुस्ताखी करेगा तो उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई होगी। इसमें सरकार का कोई दोष नहीं। सरकार तो परिपाटी निभा रही है। आखिर बिना किसी दोष के पति-पत्नी के झगड़े में बच्चे पिटते ही है ना! फिर कुम्हार-कुम्हारिन के झगड़े में बेचारे गधे को कान खिंचवाने ही पड़ते हैं। मतलब सरकार जिसके कान खींच सकती है, उसी के तो खींचेगी। समझने वाली बात यह है कि यदि अलगाववादी बातचीत के तैयार हो जाते तो भला सरकार उनको मनाने के लिए पीछे-पीछे घूमती? नक्सलियों के लिए बातचीत के दरवाजे भी तभी तक खुले हैं, जब तक कि सरकार की कालीन पर चढऩे को तैयार नहीं हो जाते हैं। जो कॉलर खींचता है, सरकार उसके लिए कालीन बिछाती है। जो अनुनय-विनय करता है, सरकार उसके कान मरोड़ती है। जो सरकार की नहीं सुनते है, उनकी सुनने के लिए सरकार बेताब दिखती है। हालांकि कर्मचारी भी केवल सुनते ही हैं, करते तो मन की है। ऐसे में सरकार उनकी सुनना बंद कर दे तो कर्मचारियों की सेहत पर क्या फर्क पड़ जाएगा। फर्क तो उनके पड़ेगा, जो उठते ही घर पर भीड़ देखने के आदी हो चुके हैं या जिनको जयकारे सुने बिना नींद नहीं आती है। जो गुणीजन सरकार की बहादुरी पर सवाल उठा रहे हैं, उनको समझना चाहिए कि आखिर सरकार उसी से तो रूठ सकती है, जो उसे सरकार मानते हैं। नक्सलियों से बातचीत बंद कैसे की जा सकती है, क्योंकि वे तो बात करते ही नहीं। नेताओं पर हमला किया तो सरकार ने सर्वदलीय बैठक कर ली, उनकी निंदा कर दी, उनके खिलाफ कार्रवाई का बयान दे दिया। इससे ज्यादा सरकार क्या कर सकती थी? गुस्सा तो अपनों पर ही उतारा जाता है। सो सरकार ने अपने कर्मचारियों पर उतार दिया। |
Tuesday, 18 June 2013
सरकार का गुस्सा
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